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उग्रतप की शोभा : क्षान्ति - २
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
कल मैंने उग्रतप के सम्बन्ध में आपको बहुत-सी बातें बताई थीं, अभी उस सम्बन्ध में अनेक पहलू बाकी हैं, जिन पर प्रकाश डाले बिना आपको उसका रहस्य समझ में न आ सकेगा, इसलिए इस प्रवचन में मैं उसी विषय पर विशेष प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा । महर्षि गौतम ने एक जीवनसूत्र दे दियासोहा भवे उग्गतवस्त खंति ।
"उग्रतप की शोभा क्षान्ति में है ।"
हमें इस पर सभी पहलुओं से विचार करना आवश्यक है । उग्रतप: जीवन में क्यों आवश्यक और उपादेय ?
उग्रतप नाम सुनते ही आप चौंक उठे होंगे, जब सामान्य एकाशन, आयम्बिल, उपवास आदि तप भी बड़ा कठिन है, तब उग्रतप इतना कष्टकर है कि रात-दिन कुछ न कुछ चरते रहने, मुँह हिलाते रहने वाले श्रेष्ठिपुत्रों और शासनकर्ताओं के लिए होना अत्यन्त ही कठिन लगता है । तब प्रश्न होता है कि उग्रतप जीवन में इतना आवश्यक क्यों है ? क्या इसके बिना मानव जीवन सार्थक और सुखी नहीं हो सकता ?
प्रश्न बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और इस युग में जब कि मनुष्य दिनोंदिन अपनी आवश्यकताएँ और भोग-साधन प्राप्त करने की इच्छाएँ, विषयभोगों की लालसाएँ अधिकाधिक बढ़ाता जा रहा है, उग्रतप अत्यन्त आवश्यक है । उसके बिना निरंकुश भोगों पर, भोगासक्तिजनित कर्मों पर और पूर्वोपार्जित कर्मों पर कोई स्वेच्छिक नियन्त्रण नहीं है ।
आप कहेंगे कि मनुष्य जब जेल में जाता है, तब उसे बहुत ही कम साधन मिलते हैं, भूखा भी रखा जाता है, बहुत ही कम और नीरस भोजन दिया जाता है, दिन भर सख्त परिश्रम भी करना पड़ता है, इसके अतिरिक्त व्यापार-धन्धों के लिए घर के किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए या कभी निर्वासित या प्रवासित होना पड़े तब कई-कई रातों तक भूखे-प्यासे उनींदे तथा थोड़े से साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है । क्या ऐसी स्थिति में उग्रतप नहीं हो जाता है ? परन्तु जैनशास्त्र या कोई भी शास्त्र इसे उग्रतप तो क्या, तप भी नहीं कहता । यह तो बलात् कष्ट सहन है, बिना इच्छा के दूसरे के दवाब से दण्डित होकर या दूसरे से प्रेरित होकर जबरन कष्ट सहना पड़ता है, स्वेच्छा से नहीं । जैसे नरक में भयंकर से भयंकर कष्ट और यातनाएँ
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