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उग्रतप की शोभा : क्षान्ति-१ १४६ इस मिट्टी के तन को सजाकर, क्यों तू अकड़ा जाता है ? मन में तेरे, पाप घनेरे, कोरे तप से तू छिपाता है।
ज्ञान बिना वे कैसे धुलेंगे, फिर साफ होगा कि नहीं ? बोल.... समाधि शतक में इसी बात का जोरदार शब्दों में समर्थन किया गया है
यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् ।
लभते स न निर्वाणं, तप्त्वाऽपि परमं तपः॥ "जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता, वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता।"
निष्कर्ष यह है कि उग्रतप ज्ञान की गंगा के साथ हो तो दोनों के संयोग से आत्मा चमकता है, निर्मल हो जाता है।
भोपाल से कुछ ही दूर एक बीहड़ वनस्थली थी, जहाँ पहले साँप, बिच्छू, रीछ, भेड़िये आदि पशु अड्डा जमाये रहते थे, चोरों और लुटेरों का भी आवास-स्थान वही था। वहाँ भारतीय धर्म और संस्कृति के सन्देशवाहक साधु नारायणदासजी ने आकर अपना डेरा जमाया। कुछ दिनों तक उन्हें इस भयंकर स्थान में नींद ही पूरी न आई। एक दिन प्रातः उठकर उस ऊबड़-खाबड़ जगह को साफ सुथरी बनाकर संकल्प किया कि इस जगह को अध्यात्मविद्या का केन्द्र बनाऊँ। संकल्प करना आसान है, लेकिन उसे निभाना बहुत ही कठिन है। बड़ी भारी तपस्या करनी पड़ती है, संकल्प सिद्धि के लिए। खूख्वार डाकुओं ने सोचा सरल साधु है, आज यहाँ है, कल चला जायेगा । हमारी चोरी-डकैती जैसे अपराध से क्या मतलब ? परन्तु जब कई दिन हो गये तो एक दिन उनसे आमना-सामना हो गया। डाकू गर्म होकर बोले"यहाँ से सबेरे ही चले जाना।" पर साधु नारायणदास किसी और ही धातु के बने हुए थे। उन्होंने कहा-भाइयो ! मेरी धरती माता के पुत्र अपने जीवनोद्देश्य से भटककर बुरे कर्म करें, उन्हें इनसे न छुड़ाकर मैं अन्यत्र जाकर सुख की नींद सोऊँ, भला यह मेरे जैसे साधु से कैसे हो सकसा है ? इसलिए मुझे यहीं रहकर तप करना होगा।"
वे लोग साधु की वाणी से प्रभावित तो हुए पर इतनी जल्दी अन्यत्र कहाँ जाने वाले थे? उन्होंने इन्हें तंग करना शुरू किया। पर साधु तो कृतसंकल्प थे, इसलिए अपना स्वप्न साकार करने के लिए डटे रहे। अन्ततोगत्वा सभी डाकू वहाँ से भाग गये । पर अभी कई परीक्षाएं शेष थीं। एक दिन एक विषधर ने उन्हें डस लिया। न कोई दवा, न सेवा करने वाला । अपनी धूनी से एक चुटकी भभूत खाई। दो दिन बेचैनी में कटे, तीसरे दिन शरीर और मन पूर्ववत् स्वस्थ हो गया।
एक गुफा थी वहाँ, उसे भी स्वच्छ किया। आसपास के नागरिक आने लगे। हलचल बढ़ने से हिंस्र पशु भी अन्यत्र चले गये।
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