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४७ उग्रतप की शोभा : क्षान्ति-१
धर्मप्रेमी बन्धुओ!
आज मैं तपस्वी-जीवन की शोभा के सम्बन्ध में चर्चा करूंगा। वैसे तो तपस्या ही मानव-जीवन की शोभा में चार चाँद लगाने वाली है, परन्तु तपस्या में जैसे जीवन को तपाना पड़ता है, मन और इच्छाओं को तपाकर वृत्तियों को परिष्कृत करना पड़ता है, उसमें शरीर और मन के तपने के साथ-साथ दिमाग भी बहुधा तप जाया करता है, उग्र तपस्वी के जीवन के लिए यह शोभास्पद नहीं है। इसीलिए उग्र तपस्वी जीवन के लिए क्या शोभास्पद है ? इसे महर्षि गौतम इस जीवन सूत्र द्वारा बताते हैं
___ “सोहा भवे उग्गतवस्स खंती" "उग्र तप की या उग्रतपस्वी की शोभा क्षमा होती है।"
गौतमकुलक का यह उन्तालीसवाँ जीवनसूत्र है। अब हम इस पर विविध पहलुओं से विचार करना चाहते हैं । तप क्या है, क्या नहीं ?
सर्वप्रथम आपको यह विचार कर लेना है कि तप किसे कहते हैं ? उग्रतप को गहराई समझने के लिए हमें तप के लक्षणों की ओर ध्यान देना होगा । तप का लक्षण स्थानांग सूत्र (ठा० ५ उ० १) की टीका में इस प्रकार किया गया है
रस-रुधिर-मांस-मेदोऽस्थिमज्जाशुक्राण्यनेन तप्यन्ते, कर्माणि वाशुभानि इत्यतस्तपो नाम निरुक्तम् ।
-जिससे तप का कर्ता अपने रस, रक्त, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा, वीर्य इन सात धातुओं को तपाता है, या अशुभ कर्मों को तपाता है। उसका नाम तप है। सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में तप का लक्षण बताया है
कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तपः । कर्मक्षय के लिए जो सम्यग्दर्शनपूर्वक तपा जाता है या शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि को तपाया जाता है, उसे तप कहते हैं ।
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