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उग्रतप की शोभा : क्षान्ति- १
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गीता में जो सात्त्विक तप - ( उद्देश्य युक्त — सकाम ) बताया है, उसकी परिभाषा देखिये
श्रद्धया परमा तप्तं तपस्ततत्रिविधंनरैः । अफलाकांक्षिभिर्युक्तः सात्त्विकं परिचक्षते ॥
किसी भी प्रकार की फलाकांक्षा ( इहलौकिक, पारलौकिक सुखभोग- वाञ्छा आदि) के रखे बिना जो व्यक्ति मानसिक, वाचिक, कायिक – त्रिविध तप करता है, वह सात्त्विक तप कहलाता है ।
जब तपःसाधक सम्यग्ज्ञानयुक्त तपोभावना से सुसंस्कृत होकर विषयसुख-त्यागरूप अनशनादि तप करता है, तब सहज ही इन्द्रिय-दमन हो जाता है, उसकी इन्द्रियाँ विषयों की ओर दौड़ती नहीं हैं ।
हाँ, तो मैं कह रहा था कि तप जब आत्म-विशुद्धि के अभिप्राय से समाधि - पूर्वक किया जाता है, तब वह तपस्वी के लिए आनन्ददायक शान्तिप्रदायक मालूम होता है।
इसके अतिरिक्त तपस्या के साथ तपः साधक की मानसिक शान्ति भंग नहीं होनी चाहिए। जिस तप से मानसिक शान्ति भंग हो जाती है, वह तप निरर्थक हो जाता है । परन्तु जो समभावी साधक इस लोक और परलोक के सुखों का अपेक्षा न करके कायक्लेश आदि अनेक प्रकार का तप करता है, उसका तप निर्मल होता है । साथ ही यह बात अवश्य ध्यान में रखना है कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यान की प्राप्ति के लिए जो अपनी आत्मा का चिन्तन करता है, उसके नियम से तप होता है ।
उग्रतप दुःख का कारण - कितना है, कितना नहीं ?
यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब मनुष्य पहले बताया हुआ सच्चा तप भी जब अधिकाधिक मात्रा में करने लगता है, यानी तप जब उग्र या घोर हो
ऐसी स्थिति में वह चित्तशुद्धि का कारण
जाता है, तब शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि सबको दुःख होता है, उग्र तप सुख-शान्ति और समाधि का कारण, आत्मशुद्धि और कैसे हो सकता है ?
समाधान यही है,
भेदविज्ञान, सम्यग् -
दीर्घतपस्वी भगवान् महावीर की दृष्टि से इस प्रश्न का जिस तप के साथ केवल देह-दमन होगा, आत्मा और शरीर का दर्शन - ज्ञान नहीं होगा, उद्देश्य शुद्ध नहीं होगा, वह तप तप जाएगा, संतापकारक हो जाएगा । इसीलिए तपस्या के सम्बन्ध में ज्ञानसार में स्पष्ट निर्देश किया है—
न रहकर ताप बन
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तदैव हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत । येन योगा न ह्रियन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा ॥
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