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आनन्द प्रवचन : भाग १०
मीरां ! शालदुशाला परिहर्या, थारो चित्त सादी साड़ी मांय,
॥हो मेड़ताणी० ॥ मीरां ! लाडूजलेबी परिहर्या, थारो चित्त सूखा टुका रे मांय,
॥ो मेड़ताणो०।। भीराबाई की इन सब विषयसुख-सामग्री के त्याग और सभी सीधे-सादे साधनों के ग्रहण के सम्बन्ध में स्वीकारोक्ति थी । वह किस कारण से थी-एकमात्र भक्तितत्त्व की परमनिष्ठा के कारण, भक्तितत्त्व की इतनी पराकाष्ठा पर वह पहुँच गई थी कि जब राणाजी ने रुष्ट होकर मीराबाई को जहर का प्याला पीने के लिए भेजा तो भी बिना किसी प्रकार की आनाकानी किये भगवच्चरणामृत मानकर पी गई और सचमुच वह विष भी मीरा के लिए अमृत रूप हो गया।
यह था तत्त्वनिष्ठा या तत्त्वलीनता का चमत्कार ! क्या तत्त्वज्ञान से रहित व्यक्ति इतना साहस कर सकता है कि वह जहर को भी अमृत मानकर पी ले ? अपमान और निन्दा की कड़वी घूटे भी भगवद्भक्ति की कसौटी समझकर सहिष्णुतापूर्वक पी ले ? तत्त्वज्ञाननिष्ठ सुख को अपने भीतर खोजता है
तत्त्वज्ञान से शून्य व्यक्ति बाह्य विषयों में, वस्तुओं में, धन, वस्त्राभूषण आदि बाह्य साधनों में सुख ढूंढता है, जबकि तत्त्वनिष्ठ व्यक्ति अपनी आत्मा में डूबकर अपने आत्मगुणों में सुख खोजता है, वह बाह्य विषयों में, या वस्तुओं में सुख नहीं देखता, वह बाह्य विषयों या वस्तुओं में सुख की मृग-मरीचिका देखता है, जो कि सुख नहीं, सुखाभास है । तत्त्वज्ञान से रहित व्यक्ति उसे अपनी दृष्टि से आँकते हैं, उसे अपने ही समान वैषयिक सुखों में लिप्त करना चाहते हैं, लेकिन तत्त्वपरायण साधुमना व्यक्ति वैषयिक सुखों में लिप्त न होकर अपने भीतर ही सुख को ढूंढता है, उसे आत्मतुष्टि का ऐसा अनुपम सुख मिलता है कि उसे दुनिया के सभी क्षणिक सुख फीके लगने लगते हैं।
श्रावस्ती के कोषाध्यक्ष की अनुपम सुन्दरी षोडशी कन्या उत्पलवर्णा यौवन के सिंहद्वार पर पहुँच चुकी थी। उसके अंग-प्रत्यंग से अद्भुत कान्ति, सौष्ठव और कमनीयता फूट रही थी। यही कारण था कि अनेक श्रेष्ठी, सामन्तों और राजकुमारों की उत्पलवर्णा के साथ विवाह के लिए प्रार्थनाएँ आने लगीं । कोषाध्यक्ष के लिए उत्पलवर्णा का सौन्दर्य समस्या बन गया था । वह उसका हाथ किसे दे और किसे न दे, यह निर्णय करना भी कठिन हो रहा था।
परन्तु उत्पलवर्णा जितनी रंग-रूप से सुन्दर थी, उतना ही उसका अन्तःकरण तथागत बुद्ध के चरणों में पहुँचकर उपदेश श्रवण से तत्त्वज्ञानरूपी सौन्दर्य से ओतप्रोत था । चिन्ता में डूबे हुए अपने पिता को देखकर वह स्वयं पिता के पास आकर बोली-“पिताजी ! एक बात आपसे पूछु ।"
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