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१२८ आनन्द प्रवचन : भाग १० है, नश्वर है, सांसारिक सुख मिथ्या है, सौन्दर्य निःसार है, जबकि हम लोग सौन्दर्य और सुख-साधनों के उपभोग ही सुख मानते हैं।"
सम्राट बिम्बसार बोले- “गृही हो या विरक्त, सबको एक दिन आखिर तो जाना ही पड़ेगा, इसीलिए पारलौकिक लक्ष्य की तैयारी यहाँ से विदा होने से पूर्व की जानी उचित ही है । यदि इस तरह का तत्त्वज्ञान और तत्त्व-मार्गदर्शन किसी योग्य परमतत्त्वदृष्टा मार्गदर्शक से मिलता हो तो क्या बुरा है ? इसे अपना सौभाग्य समझना चाहिए, प्रिये !"
। परन्तु क्षेमा सम्राज्ञी ने कोई उत्साह प्रदर्शित न किया। इसी बीच तथागत बुद्ध वहाँ आ पहुँचे । समस्त राज-परिवार और स्वयं सम्राट तथागत के स्वागत में दौड़ पड़े, सिर्फ एक क्षेमा रानी नहीं आयी। तथागत बुद्ध ने क्षेमा की कुशलक्षेम पूछी और समझ गये कि उसका सौन्दर्य अहंकार ही उसे यहाँ आने में बाधक बना है।
उधर क्षेमारानी को सहसा योगनिद्रा आ गई। उसने एक स्वप्न देखा कि एक अत्यन्त सौन्दर्यवती अप्सरा तथागत बुद्ध को चंवर ढुला रही है । फिर उसने उस अप्सरा की बाल्यावस्था, यौवन और बुढ़ापा तीनों अवस्थाएं देखीं। अप्सरा का शिथिल जर्जर शरीर, पके बाल, अन्दर धंसी हुई आँखें देखते ही क्षेमा का अन्तर्मन व्याकुल हो उठा-कहाँ गया उसका यौवन ! कहाँ गया वह सौन्दर्य जो अंग-अंग में आकर्षणीय था। उसकी नींद टूट गई और साथ ही उसकी मोहनिद्रा भी। सोचा'मनुष्य-जीवन कितना निःसार है। मनुष्य अपने आपको कितना सजाता-सँवारता है, लेकिन अन्त में विनाश के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं आता । बालू के ढेर की भाँति यह भौतिक शरीर ढह जाता है ।' क्षेमारानी तत्काल तथागत के चरणों में उपस्थित हुई और नमन करके क्षमा माँगने लगी। फिर उसने पूछा-"मुझे आत्मोद्धार का मार्ग मिलेगा, भंते !"
तथागत मुस्कराकर बोले- "पुत्री क्षेमा ! आत्मोद्धार का मार्ग मिलेगा अवश्य । - पहले तुम अपने बाह्य सौन्दर्य को भूलकर आन्तरिक सौन्दर्य को ढूंढ़ो। तुम्हारी जिज्ञासा जितनी प्रबल होती जाएगी, लक्ष्य उतनी ही तेजी से तुम्हारे निकट आता जाएगा।"
__ यह है, तत्त्वनिष्ठ साधक का सौन्दर्य का तत्त्वदर्शन, जिसमें मग्न होकर वह स्वयं का एवं संसार का उद्धार करता है। तत्त्वज्ञानी सुसाधु का जीवन परमार्थी होता है
तत्त्वनिष्ठ सुसाधु स्वार्थी और स्वयं की सुख-सुविधा के लिए प्रयत्नशील नहीं होता; किन्तु स्वयं के प्रति निःस्पृह होकर अपने प्राणों का मोह त्यागकर वह समस्त जीवों में एक आत्मतत्त्व को देखता है, सभी में परमात्मा का रूप देखता है। उसकी दृष्टि में अपने-पराये, धनी-निर्धन, सुरूप-कुरूप आदि का भेदभाव नहीं होता।
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