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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-१ १०७ और तुम्हारा पंचवार्षिक राज्यकाल समाप्त होते ही तुम भी उसी नगर में जहाँ आज भयानक जंगल है-बस जाओ। वहां फिर खूख्वार जानवरों की जगह सभ्य नागरिक होंगे। वे तुम्हारा सम्मान करेंगे, तुम्हारे प्रति कृतज्ञ एवं श्रद्धावान भी रहेंगे । मैं समझता हूँ, जिसे आज तुम भयंकर नरक समझ रहे हो, पांच वर्ष में तो वह स्वर्ग का नन्दनवन बन जाएगा।"
राजा इस उपाय को सुनते ही हर्ष से उछल पड़ा । कहने लगा-"धन्य हो महाराज ! आपकी सुबुद्धि को, आपके तत्त्वज्ञान को। मैं तो आपकी तत्त्वज्ञानमयी प्रेरणा से कृतकृत्य हो उठा।"
___ वह तत्त्वज्ञ साधु तो कुछ दिन बाद ही वहाँ से चला गया। मगर राजा ने अपने जीवन का और साथ ही उस भयंकर वन का कायापलट कर दिया।
बन्धुओ ! जब तक राजा को तत्त्वज्ञान की उपलब्धि नहीं हुई थी, तब तक उसका जीवन कितना आर्तध्यान में बीतता था, और जब तत्त्वज्ञान पाया तो सारा ही जीवन बदल गया। राजा स्वयं सुखी हो गया । राजा के पास जो पहले साधन थे, उतने ही बाद में रहे, पर उसकी दृष्टि में, उसके रुख में परिवर्तन आ गया। राजा जिन साधनों को अपने मानता था, उन्हें अब सबके मानने लगा। सबके उपकार के लिए उन साधनों का प्रयोग करने लगा।
यह है तत्त्वज्ञान के अभाव में और तत्त्वज्ञान के सद्भाव में मानव जीवन का अलग-अलग रूप ! वास्तव में तत्त्वज्ञान के अभाव में किसी भी व्यक्ति का जीवन सुख-शान्तिमय नहीं हो सकता, विशेषतः साधु का जीवन तो तत्त्वज्ञानपरायणता के अभाव में नरक-सा बन जाता है।
तत्त्वज्ञान के अभाव में साधक को भ्रान्तियाँ तत्त्वज्ञान जब किसी साधु या सज्जन पुरुष में नहीं हो तो उसे अपनी आत्मशक्ति पर ही विश्वास नहीं होता, उसका मनोबल गिर जाता है। बहुधा साधक लोग किसी अतत्त्वज्ञ से परामर्श लेकर उसके मार्गदर्शन में चलते हैं तो वे गुमराह हो जाते हैं, वे स्वयं तत्त्वज्ञान के अभाव में अपना आत्मोत्कर्ष नहीं कर पाते। कई साधुबाबा त्याग, वैराग्य, तितिक्षा आदि की बहुत लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं । परन्तु साथ में तत्त्वदृष्टि न होने से उनमें आलस्य, प्रमाद, कटुवचन, नशेबाजी, भाग्यवाद, कर्तव्यों और दायित्वों से पलायन, अन्धविश्वास आदि अनेक दोष प्रविष्ट हो जाते हैं। बाहर से सीधे-सादे, भोले-भाले लगते हुए भी ऐसे साधुबाबा भीतर से तत्त्वज्ञान से शून्य होते हैं, इसलिए उनमें जिज्ञासावृत्ति की कमी होती है, वे प्रायः अनुकरणशील, परम्परापरायण और गतानुगतिक हो जाते हैं।
तत्त्वपरायणता के अभाव में किस प्रकार साधक अपने कर्तव्य से भटक जाता है, इसे उपनिषदकालीन प्रकृति-उपासक दो ऋषियों की घटना से समझिए
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