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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-१ १०३ का सहारा लेकर ही सब काम किया । लेकिन वे शास्त्र के हार्द-तत्त्व तक नहीं पहुंच पाये।
आज भी धर्म के सम्बन्ध में पण्डित लोग शास्त्रों का प्रमाण देते हैं । शास्त्रों में विधान और निषेध बताकर ही छुआछूत, जन्मना जातिवाद के नाम पर शूद्र के प्रति घृणा करना तथा शूद्र के वेद सुनने पर उसके कान में पिघला हुआ गर्मागर्म शीशे का रस डाल देना आदि बातों का औचित्य सिद्ध कर देते हैं। लेकिन यदि वे शास्त्रों का हार्द पकड़ते, शब्दों की आत्मा का स्पर्श करते तो कदापि शास्त्रों की दुहाई न देते और न ही शास्त्रों के नाम पर इस प्रकार का अत्याचार करते । पशु की बलि देने का विधान है वहाँ शब्दस्पर्शी शास्त्रजीवी काम, क्रोध आदि को पशु न मानकर मूक निर्दोष पशुओं की बलि का जोर-शोर से प्रचार करते नहीं चूकते, जबकि दूसरी ओर 'अहिंसा परमोधर्मः' 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' आदि शास्त्रवाव की भी दुहाई देते हैं।
निष्कर्ष यह है कि तत्त्व से अनभिज्ञ शास्त्रवादी लोग शास्त्रों की वाणी दुहराते हैं, किन्तु उसके साथ युक्ति और आत्मानुभूति को नहीं जोड़ते, इसीलिए तो वे तत्त्व तक नहीं पहुंच पाते ।
धर्माचरण के पुरुषार्थ के साथ तत्त्वज्ञान न हो तो धर्माचरण में पुरुषार्थ तो हो, लेकिन साथ में तत्त्वज्ञान न हो तो वह साधक आगे जाकर लड़खड़ा जाता है। धर्म जब तत्त्वज्ञान के प्रकाश से बंचित रहता है, तब उसकी गति विपरीत भी हो जाती है। तत्त्वज्ञान से शून्य धर्म को पकड़ना, तलवार या शस्त्र को उल्टा पकड़ना है। ऐसा करने से उस साधक की स्वयं की क्षति बहुत अधिक होती है । देखिए उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २०) में महानिर्ग्रन्य के सम्बन्ध में अनाथी मुनि कहते हैं
विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं ।
एसोऽवि धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ।
"जैसे कोई व्यक्ति कालकूट नामक विष पी लेता है, या शस्त्र को विपरीत रूप में पकड़ता है, वह स्वयं मारा जाता है; वैसे ही कोई साधक धर्म को विषय युक्त रूप में पकड़ता है, वह भी वैतालग्रस्त व्यक्ति की तरह मारा जाता है।"
यह निर्विवाद सत्य है कि तत्त्वज्ञान से रहित धर्म जड़ता, बहम और अन्धविश्वास से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए धर्म के साथ तत्त्वज्ञान का होना बहुत आवश्यक है, तभी धर्म शुद्ध रूप में आचरित होगा। अन्यथा, धर्म में विषय-वासना, सुख-सुविधा, अन्धविश्वास तथा प्रमाद की मिलावट हुए बिना न रहेगी।
पाप का प्रधान कारण : तत्त्वज्ञान का अभाव यदि सच पूछा जाय तो साधक पाप कार्य में तभी प्रवृत्त होता है; जब उसमें तत्त्वज्ञान नहीं होता। तत्त्वज्ञान के अभाव में उसे यह नहीं सूझता कि मैं जो कुछ
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