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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-१
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज आपके समक्ष सुसाधु के जीवन के सम्बन्ध में चर्चा करना चाहता हूँ। महर्षि गौतम का विचार है कि जो सुसाधु होते हैं, वे तत्त्वपरायण होते हैं। वे तत्त्वदृष्टि के अनुसार चलते हैं, वे प्रत्येक वस्तु की तह में पहुंचते हैं और उसके असली स्वरूप को जानकर अपना कर्तव्य निर्धारित करते हैं; वे ऊपर-ऊपर नहीं तैरते, वस्तु के बाह्य सौन्दर्य को, या उसके सुरूप-कुरूप को देखकर कोई निर्णय नहीं करते । गौतम कुलक का यह अड़तीसवां जीवनसूत्र है, जो इस प्रकार है
"सुसाहुणो तत्तपरा हवंति" -सुसाधु तत्त्व-परायण होते हैं । सुसाधु कौन, कुसाधु कौन ?
___ यहाँ 'सुसाधु' शब्द होने से पहला सवाल यही उठता है कि सुसाधु और कुसाधु के क्या लक्षण हैं ? उन दोनों की पहिचान क्या है ? क्योंकि सुसाधु की तरह कुसाधु या नकली साधु भी साधु के वेष में रहता है, वह भी साधु की तरह क्रिया करता है, वह भी सुसाधु की तरह बल्कि सुसाधु से बढ़कर लच्छेदार भाषण देता है, लोगों के साथ सम्भाषण करने और उनको प्रभावित करके अपने हित के लिए लाखों रुपये दान कराने में कुशल होता है, सुसाधु की अपेक्षा कुसाधु का आडम्बर और धुंआधार प्रचार भी अधिक होता है, वह देश-विदेशों में फैल जाता है। बुझते दीपक की तरह उसकी चमक-दमक दूसरों को एकदम चकाचौंध कर देती है। इसलिए साधारण लोगों के लिए यह पहचानना कठिन होता है कि यह साधु ठीक है या ठीक नहीं ?
साधारण लोगों की दृष्टि तो वेशभूषा एवं क्रियाकाण्ड तक ही जाती है, इसलिए वे झटपट सुसाधु-कुसाधु का निर्णय नहीं कर सकते । यही कारण है कि गौतम महर्षि ने यहाँ 'सुसाहुणो' शब्द विशेष अभिप्राय से दिया है। - सम्यक्त्व के पाठ में देव, गुरु और धर्म, इन तीन तत्त्वों के ग्रहण-स्वीकार करने की जहाँ बात आती है, वहाँ भी स्पष्ट उल्लेख किया है—'सुसाहुणो गुरुणो'
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