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आनन्द प्रवचन : भाग १०
रूप प्रतीत होता हो, वह नहीं, किन्तु वस्तु का सिद्ध, परिनिष्ठित, वास्तविक रूप जानना और देखना-सम्यग्ज्ञान है । इसी को दूसरे शब्दों में तत्त्वज्ञान कहते हैं। तत्त्वज्ञान को उत्पत्ति
विश्व में आपको अनेक पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं । अनेक घटनाएँ घटित होती हैं। आपको पदार्थों से सुख-दुःख, आश्चर्य, भय होता है । आप इन सब पदार्थों, घटनाओं तथा परिस्थितियों को उनके यथार्थ अन्तस्वत्त्व के रूप में न समझकर राग-द्वेष से युक्त होने के कारण भिन्न-भिन्न रूप में समझ लेते हैं । आप उन पदार्थों और पदार्थों से अपने पर होने वाले प्रभावों को यथार्थ वस्तु रूप में लक्ष्य में नहीं लेते, और जैसे-तैसे उसी राग-द्वेष के प्रवाह में बहते चले जाते हैं । जो विचारक होते हैं उन्हें यह प्रतीत हुए बिना नहीं रहता कि इन सब पदार्थों और विश्व की रचनाओं को मैं जिस रूप से देखता हूँ, वे उसी रूप में हैं, या उनका स्वरूप कुछ और तरह का है। जगत् में ये अकस्मात् ही होते जाते हैं या इनके भी कार्य-कारण रूप कुछ नियम हैं ? इसी जिज्ञासा में से तत्त्वज्ञान पैदा होता है।
मनुष्य ने जब पहले-पहल प्रकृति की गोद में जन्म लिया और विश्व की ओर आँखें खोलकर देखा तो उसके सामने अनेक चामत्कारिक वस्तुएँ तथा घटनाएँ उपस्थित हुईं। एक ओर सूर्य, चन्द्रमा, अगणित तारामण्डल, दूसरी ओर गर्जता हुआ समुद्र, पर्वत, विशाल नदी प्रवाह, मेघगर्जना और बिजली की चमक-दमक ने उसका ध्यान आकर्षित किया। मनुष्य का मानस इन और ऐसे ही अन्य आश्चर्यजनक स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म चिन्तन में प्रवृत्त हुआ, और उसके बारे में अनेक प्रश्न उसके दिल-दिमाग में प्रादुर्भूत हुए। उसके बाद आन्तरिक विश्व के गूढ़ और अति सूक्ष्म स्वरूप के बारे में भी उसके मानस में विविध प्रश्न पैदा हुए। इन प्रश्नों में से जो वस्तु की तह तक पहुंचकर उसके यथार्थ स्वरूप, आन्तरिक और बाह्य स्वरूप की छानबीन की गई, वही ज्ञान तत्त्वज्ञान का कारण बना।
उदाहरण के तौर पर-इस विश्व के वस्तुतत्त्व की जब जिज्ञासा हुई तब उसके बाह्य एवं आन्तरिक रूप के सम्बन्ध में कई प्रश्न समुद्भूत हुए होंगे-यह विश्व शाश्वत है या परिवर्तनशील ? यह विश्व कब और कैसे उत्पन्न हुमा होगा? यह अपने आप उत्पन्न हुआ होगा या किसी ने इसे उत्पन्न किया होगा? उत्पन्न हुआ हो तो क्या यह विश्व ऐसा ही था, ऐसा ही रहेगा ? इस विश्व की रचना और संचालना, जोकि व्यवस्थित और नियमबद्ध है, वह बुद्धिपूर्वक हुई है, होती है, या यन्त्रवत् अनादि सिद्ध होती है ?
इसी प्रकार आत्मा, परमात्मा के सम्बन्ध में, आत्मा से सम्बन्धित शरीर, इन्द्रियाँ, मन, अहंकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के सम्बन्ध में भी विविध प्रश्न उठाकर उनका समाधान कराने हेतु जो तत्त्व की छानबीन करता है, उसके असली स्वरूप के बारे में निश्चय करता है, यही तत्त्वज्ञान है।
निष्कर्ष यह है कि किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप की शोध करके यथार्थ निश्चय करना तत्त्वज्ञान है । तत्त्वज्ञान करने वाला वस्तु के यथार्य स्वरूप-आन्तरिक
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