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सुसाधु होते तत्त्वपरायण - १
तत्त्व - या सत्य की शोध करता है, उसी शोध का परिणाम तत्त्वज्ञान है । वस्तुतः: सत्यशोधन के प्रयत्न में से फलित हुए या फलित होने वाले सिद्धान्त ही तत्त्वज्ञान के प्राण हैं ।
तत्त्वज्ञान सत्य शोध का एक मार्ग है । मनुष्य चाहे जिस विषय का अध्ययन करे, उसके साथ सत्य और तत्त्वज्ञान का सम्बन्ध होता ही है । जिसके मन के सभी द्वार सत्य के लिए उन्मुक्त हों, राग-द्वेषादि से निर्लिप्त हों, तो वह जो कुछ भी सोचेगा - या करेगा, वह सब तत्त्वज्ञान में आ जाता है ।
तत्त्वज्ञान का दायरा सीमित नहीं है । वह विश्व की जड़-चेतन सभी वस्तुओं एवं उनसे सम्बन्धित शुभ-अशुभ प्रभावों और उनके सामान्य एवं व्यापक नियमों के सम्बन्ध में बाह्य- आन्तरिक स्वरूप का विचार करता है ।
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मानव जाति के कुछ विशिष्ट ज्ञानवान पुरुषों ने, सर्वज्ञों ने आदिमकाल से लेकर अब तक जो तत्त्व - विचारणा करके कुछ सिद्धान्त निश्चित किये हैं, कई वस्तुओं के वस्तु स्वरूप स्थिर किये हैं, जैसे जीवादि आदि नौ तत्त्व षड् द्रब्य आदि, उनके विषय में यथार्थ श्रद्धान करना और उस विशुद्ध तत्त्वज्ञान को उपलब्ध करना और स्वयं अनुभूत करना, हेय को त्यागकर उपादेय तत्त्व का अनुसरण करना तत्त्वोपलब्धि है, जो तत्त्व ज्ञान का ही विशिष्ट रूप है ।
साधु - जीवन का आन्तरिक सामर्थ्य : तत्त्वज्ञान-परायणता
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने एक जगह अपना अनुभव लिखा है कि एक दिन मैं किसी पहाड़ी से गुजर रहा था। वहाँ एक बड़ा विशाल वट वृक्ष खड़ा तलहटी की शोभा बढ़ा रहा था । उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि संसार में कैसे-कैसे सामर्थ्य - वान् पदार्थ हैं, जो दूसरों का कितना हित करते हैं । यों सोचता हुआ मैं आगे बढ़ गया। कुछ दिन बीते । उसी रास्ते पुनः लौटना हुआ । जब उस पहाड़ी पर मैंने वह क्ष न देखा तो बड़ा विस्मय हुआ । ग्रामवासियों से पूछने पर पता चला कि दो दिन पहले तेज तूफान आया था उसी से वह वट वृक्ष उखड़कर धराशायी हो गया । मैंने पूछा - "भाई ! वृक्ष तो बहुत मजबूत था, फिर उखड़ कैसे गया ?"
वे बोले – “उसकी मजबूती दिखावामात्र थी । भीतर से तो वह खोखला था । खोखला पेड़ हल्के से आघात भी कब सहन कर सकता है ?"
तब से मैं बराबर सोचा करता हूँ कि जो लोग बाहर से बलवान् हैं मगर भीतर से दुर्बल हैं, ऐसे लोग संसार में औरों का हित तो क्या कर सकते हैं, स्वयं अपना अस्तित्व भी वे सुरक्षित नहीं रख सकते । वे खोखले पेड़ की तरह एक ही झोंके में उखड़कर गिर जाते है
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तत्त्वज्ञान के सम्बन्ध में है । तत्त्वज्ञान साधुजीवन का आन्तरिक सामर्थ्य • जिस साधु के जीवनवटवृक्ष में तत्त्वज्ञानरूप मूल सशक्त, सुदृढ़ एवं रोमरोम में रमा हुआ नहीं होता, उसका मूल मजबूत नहीं होता, इस कारण जीवन
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