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आनन्द प्रवचन : भाग १०
" जो शान्त हुए विवाद और कलह को फिर उभारता है, अधर्मरत है, आत्मज्ञान से हीन है, जब देखो तब विग्रह और कलह करने के लिए उद्यत रहता है, वह पापी साधु है ।”
“जिसका अपने खाने-पीने और सुख-सुविधाओं की ओर ही ध्यान है, बार-बार दूध, दही आदि विकृतिजनक सरस स्वादिष्ट भोजन करता है । तपस्या का नाम सुनते ही जिसे बुखार चढ़ जाता है, ऐसा साधु भी पापश्रमण कहलाता है ।"
यह है कुसाधुओं का आन्तरिक रूप, जिससे हर कोई उन्हें पहचान सकता है । एक ऐसे ही बाबाजी की घटना देकर इस बात को स्पष्ट करता हूँ – दिल्ली से लगभग २० मील दूर बुलंदशहर जिले के धूमदादरी गाँव के मन्दिर में एक बाबा जी रहते थे । गाँव वालों ने उनके जीवन-निर्वाह के लिए मन्दिर के साथ थोड़ी-सी जमीन एवं कुछ सम्पत्ति लगा दी, लेकिन वह इतने आलसी थे कि जमीन की जरा भी देखभाल नहीं करते थे । फिर भी गाँव वाले उनके भोजन एवं दूध-पानी की व्यवस्था करते थे । बाबाजी तो सिर्फ खा-पीकर और भांग-गांजे का दम लगाकर पड़े रहते थे, उन्हें न लोकशिक्षण से कोई मतलब था और न ही तपस्या से या साधना से । स्वावलिम्बन की बात तो बेचारे सोचते ही कहीं से, तत्त्वज्ञान की उनमें कोई रुचि ही न थी ।
एक जिज्ञासु युवक उनके पास आया-जाया करता था । उससे ज्ञान या सत्संग की बात तो क्या करते, पर दुनिया से वैराग्य की बातें करके उसमें वैराग्य चढ़ाते थे; क्योंकि बाबाजी को बुढ़ापे में सेवा के लिए एक शिष्य की जरूरत थी । शिष्य की जिज्ञासा कैसे तृप्त की जा सकती है, उसका आत्म-विकास कैसे हो सकता है, इस ओर बाबाजी का कोई ध्यान न था । सिर्फ चेला मूंड़ने की ओर ही ध्यान था, अतः उसे फुसलाकर चेला बना लिया, नाम रखा - सोमदत्त गिरि ।
कुछ ही महीनों के संग से सोमदत्त को पता चल गया कि बाबाजी कितने गहरे पानी में हैं । उसे उनसे क्या उपलब्धि हो सकती है ? साधुओं को समाज का मार्ग-दर्शन एवं जिज्ञासुओं को तत्त्वबोध देकर सन्मार्ग पर लाने के कर्तव्य से च्युत जानकर सोमदत्त गिरि को बड़ा दुःख हुआ । जिससे जन-जन के कल्याण का मार्ग पाने की आशा से जनता भगवान की तरह पूजती है, उस साधु वर्ग की यह दयनीय दशा ! ओफ ! इतना पतन है, सांधु वर्ग का ! सोमदत्त गिरि गहरे मन्थन में पड़ गये । अब मुझे क्या करना चाहिए ? अब पीछे कदम हटाकर गृहस्थ में जाना ठीक नहीं, इसमें साधुता का पथ कलंकित होने का भय है । इसलिए सोचा कि यदि हम समाज को कुछ भी नहीं दे सकते तो हमें उस पर आश्रित रहने का भी कोई अधिकार नहीं होना चाहिए ।
जब तक सोमदत्त के गुरु जीवित रहे, तब तक वे धर्मग्रन्थों का अध्ययन, स्वाध्याय तथा कीर्तन के द्वारा अपनी योग्यता और साधना बढ़ाते रहे । इसी बीच
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