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४३ विद्याधर होते मन्त्रपरायण
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं एक ऐसे जीवन के विषय में आपके समक्ष चर्चा करूँगा, जो विद्याधर जीवन है, जिस जीवन में मन्त्रपरायणता अनिवार्य होती है। मन्त्रपरायणता के बिना विद्याधर जीवन नीरस, शुष्क और चक्षुविहीन शरीरवत् होता है। विद्याधर के जीवन का प्राण-मन्त्रपरायणत्व, उसके जीवन का मूल-मन्त्राभ्यास होता है। महर्षि गौतम ने एक महत्वपूर्ण जीवनसूत्र हमारे मनन-चिन्तन के लिए दे दिया है। हमें इस पर गम्भीरता से विचार करना है । गौतम कुलक का यह ३६वाँ जीवनसूत्र है, वह इस प्रकार है
'विज्जाहरा मन्तपरा हवन्ति' "विद्याधर मन्त्र-परायण अथवा मन्त्र सिद्धि के लिए तत्पर होते हैं।" अब हम विद्याधर एवं मन्त्र शब्द के विविध पहलुओं पर विचार करें।
भारतीय मनीषियों द्वारा विविध विद्याओं को देन प्रागैतिहासिक काल से भारतवर्ष में ज्ञान-विज्ञान का अन्वेषण, अनुशीलन एवं अनुसन्धान होता रहा है। भारतीय मनीषियों और अध्येताओं ने विद्या की विभिन्न शाखाओं में जो कुछ प्रगति की है, तथा सतत् नित नई शोध-खोज करते आ रहे हैं, वह हमारे लिये गौरव का विषय है। दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य, योग, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद एवं भौतिक विज्ञान तथा अध्यात्म-विज्ञान आदि विभिन्न विद्याओं तथा विभिन्न कलाओं के सम्बन्ध में भारतीय अन्वेषकों की जो विशिष्ट देन है, वह साधारण नहीं है । भले ही आज पाश्चात्य भौतिक वैज्ञानिकों एवं मनोवैज्ञानिकों ने नये-नये आविष्कार करके मानव जाति को चमत्कृत कर दिया हो, परन्तु इन सबकी पृष्ठभूमि, इन सबकी आधारभूमि या इन सबके बीज भारतीय धर्मग्रन्थों में निहित हैं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' की कहावत के अनुसार जो गहराई में उतरकर खोजता है, उसे सब कुछ उपलब्धियाँ होती हैं। आज भारतीय मनीषीगण पाश्चात्य भौतिक विज्ञान की चकाचौंध में प्राचीन भारतीय विद्याओं को भूलते एवं उनकी उपेक्षा करते जा रहे हैं, यह खेद का विषय है ।
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