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विद्याधर होते मन्त्रपरायण
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ऐसे विद्याधर फिर अपनी आविष्कृत वस्तु या (वर्षों तक के अभ्यास से) सिद्ध की हुई विद्या का लोकजीवन के सुखवृद्धि के लिए जन-हितार्थ प्रयोग करते हैं, स्वयं भी उससे लाभ उठाकर अपनी सुख-सुविधाएँ बढ़ाते हैं । तात्पर्य यह है कि आधुनिक विद्याधर भी मन्त्र और तन्त्र दोनों को सिद्ध करने और प्रयोग करने में तत्पर रहते हैं । विविध थ्योरियों को मन्त्र एवं तन्त्र के रूप में सिद्ध करने का अभ्यास करते हैं और फिर उस विद्या का प्रयोग करने में तत्पर हो जाते हैं। ये आधुनिक वैज्ञानिक (विद्याधर) भी आलस्य एवं प्रमाद से दूर रहते हैं।
विद्या के आविष्कारार्थ अपना प्राणार्पण करने वाले भी इन आधुनिक विद्याधरों में हम उन लोगों की गणना भी कर सकते हैं, जो किसी भयंकर रोग-टी. बी., कैंसर, महामारी (प्लेग), हैजा आदि की रोकथाम के लिए किसी दवा, इन्जेक्शन, टीका आदि साधनों के आविष्कार के लिए अपना बड़े से बड़ा स्वार्थत्याग, या प्राणत्याग तक करने के लिए तत्पर रहते हैं। ऐसे लोकोपकारी महानुभाव को क्या हम आधुनिक विद्याधर की कोटि में नहीं गिनेंगे ?
सन १७२० की घटना है। फ्रांस के मार्सेल्स नगर में एकाएक भयंकर महामारी (प्लेग) फैली। आदमी मक्खियों की तरह टपाटप मरने लगे। श्मशान में लाशों का ढेर लग गया, उन्हें जलाने या दफनाने वाला भी नहीं रहा। सारा प्रान्त इस महाभय से कांप उठा । डॉक्टरों के सभी बाह्य उपचार निष्फल हो गये। कई डॉक्टर भी इस चेपी रोग के शिकार होकर मरण-शरण हो गये । आखिर इस महारोग के निदान और अकसीर इलाज की खोज के लिए प्रसिद्ध डॉक्टरों की मीटिंग हुई। सभी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह रोग सामान्य उपचारों से मिटने वाला नहीं है। महामारी के रोग से मरे हुए व्यक्ति की लाश चीरकर देखे बिना इसका निदान असम्भव है। पर प्लेग से मरे हुए व्यक्ति की लाश को चीरे कौन ? प्लेग वाले की लाश को चीरना यमराज को न्यौता देना था। कोई इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था। सारी सभा विजित होने को थी, तभी एक जवान खड़ा हुआ, उसकी आँखों में करुणा और ओठों पर निर्णय था । उसका नाम था-डॉ. हेनरी गायन । सभी डॉक्टरों का ध्यान उसकी ओर खिंचा हुआ था कि यह कोई नई खोज तो नहीं लाया ? वह जरा आगे बढ़कर नम्रतापूर्वक बोला- "आप जानते हैं कि अपनी जिन्दगी का मोह छोड़े बिना दूसरों को जीवनदान नहीं दिया जा सकता। और कोई भी शोध जीवन अर्पण किये बिना नहीं हो सकती। मेरे शरीर के अर्पण से यदि हजारों-लाखों माताओं एवं भाई-बहनों के आँसू रुकते हों तो मैं अपना यह शरीर अर्पण करने को तैयार हूँ। लो, मेरा यह वसीयतनामा। मेरे आगे-पीछे कोई नहीं है। मेरी यह सारी सम्पत्ति महामारी के रोगियों को चिकित्सा के लिए खर्च करना। मनुष्य जीवन का इससे बढ़कर और अच्छा क्या उपयोग हो सकता है ?" यह सुनकर बड़े-बूढ़े डॉक्टर देखते ही रह गये। जो देह की ममता वृद्ध न छोड़ सके, वह इस नवयुवक डॉक्टर हेनरी
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