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आनन्द प्रवचन : भाग १०
कोशिश करने लगे या झगड़ा, मार-पीट, चोरी-डकैती, दंगा-फसाद करने पर उतारू हो गये । यही कारण हैं राज्याधिपों से उद्दण्ड और दुष्ट बनने के।
वास्तव में जब राजा में अन्याय, अत्याचार, निरंकुशता, सत्ता का मद, शोषण, दुर्व्यसन, अति स्वार्थ आदि दूषण आ जाते हैं तो वह शिष्ट अधिप से दुष्ट अधिप बन जाता है, ऐसी दशा में उस पर कोई नियन्त्रण-बल न हो तो वह दुष्ट से दुष्टतर होता जाता है। उसका शासन दुःशासन बन जाता है । राजा को इसीलिए नीतिकारों ने परामर्श दिया है
राजन् ! दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमनां, तेनाद्य वत्समिव लोकममुं पुषाण । तस्मिश्च सम्यगनिशं परिपुष्यमाणे,
नानाफलं फलति कल्पलतेव भूमिः ॥ "राजन् ! यदि पृथ्वी रूपी गाय को (कर आदि से) दुहना चाहते हो तो पहले बछड़े की तरह इस लोक (प्रजासंतान) को सेवारूपी दूध पिलाकर पुष्ट करो। यदि प्रजासन्तान अहर्निश सम्यक् रूप से परिपुष्ट होगी तो यह पृथ्वी कल्पलता की तरह अनेक फल देगी।"
राजा के दुष्ट अधिप होने के कई कारण नीतिकारों ने बताये हैं
अवज्ञानाद्राज्ञो भवति मतिहीनः परिजनः, ततस्तत्प्रामाण्याद् भवति न समीपे बुधजनः । बुधैस्त्यक्त राज्ये नहि भवति नीतिगुणवती,
विपन्नायां नीतौ सकलमवशं सीदति जगत् ॥१॥
"राजा जब राज्यकार्य से बेखबर रहता है, अज्ञानी रहता है, तब उसके परिजन-पौरजन दुर्बुद्धि हो जाते हैं और ऐसा प्रमाणित होने पर राजा के पास कोई प्रबुद्ध विद्वान नहीं फटकता। जिस राज्य को बुद्धिमान लोग छोड़ देते हैं, वहाँ की राजनीति दूषित हो जाती है । नैतिक संकट आ पड़ने पर सारा जगत् विवश होकर दुःख पाता है।"
नपः कामासक्तो गणयति न कार्य, न च हितम्, यथेष्टं स्वच्छन्दः प्रविचरति मत्तो गज इव । ततो मानध्मातः स पतति यदा शोकगहने,
तदा भृत्ये दोषान् क्षिपति, न निजं वेत्त्यविनयम् ॥२॥ "जब राजा कामासक्त हो जाता है तब उसे न तो अपना कर्तव्य सूझता है, और न ही स्व-पर-हित । ऐसी स्थिति में वह मतवाले हाथी की तरह स्वछन्द होकर चलता है। जब उसके अभिमान पर (पराजित होने से) चोट पहुँचती है तब वह गहरे शोक में डूब जाता है; और उसका दोष अपने सेवकों और कर्मचारियों के गले मढ़ता है, किन्तु अपने अविनय को नहीं जान पाता।"
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