Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रथम परिच्छेद
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न सरिणा भाति विना व्रतास्था, __ शमेन विद्या नगरी जनेन ॥४६॥ अर्थ-दुग्धसें गाय सोहै है, अर फूलनिसें बेलि सोहै हैं, अर शीलसें स्त्री सोहे है अर जलसें अलाइ सोहै है, आचार्य विना व्रतकी स्थिति नहीं होय है, शांतिभावसें विद्या सोहै है, मनुष्यनितें नगरी सोहै है ॥४६॥ विधीयते सूरिवरेण सारो, धर्मो मनुष्ये वचनरुदारैः । मेघेन देशे सलिलैः फलाढ्ये, निरस्ततापरिव सस्यवर्गः ॥५०॥
अर्थ-जैसें दूर किया है ताप जिननें ऐसे जलनि करि फलसहित देशमें मेघकरि धान्यका समूह उपजाइए है तैसें उदार वचननि द्वारा आचार्य करि मनुष्यविषं सारभूत धर्म उपजाइए है ॥५०॥ लब्ध्वोपदेश महनीयवृत्तगुरोरनुष्ठाय विनोतचेताः। पापस्य भव्यो विदधाति नाशं,व्याधेरिव व्याधिनिषूदनस्य ॥५१॥
पर्ण-जैसें रोगी वैद्यका उपदेश ग्रहण करि वाकी बताई औषधिकों लेकरि व्याधिका नाश करहै तैसे विनययुक्त है चित्त जाका ऐसा भव्य, पूज्य है आचरण जाका ऐसे गुरुके उपदेशको प्राप्त अर वाकू अनुष्ठान करि पापका नाश करै है।
भावार्थ-जैसें रोगी वैद्यके उपदेशतें रोगकू नाश है तैसें भव्य गरुके उपदेशतें पापकों नारी है ॥५१॥ सर्वोपकारं निरपेक्षचित्तः करोति यो धर्मधिया यतीशः। स्वकार्यनिष्ठरुपमीयतेऽसौ कथं महात्मा खलु बंधु नोकः ॥५२॥
अर्थ- जो आचार्य विनास्वार्थके धर्मबुद्धिकरि सर्वका उपकार कर है सो यहु महात्मा अपने अपने कार्य साधने विषं तत्पर ऐसे बन्धुलोकनि करि कैसे बराबर हूजिए हैं ॥५२॥.