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भागम- साहित्य की रूप-रेखा
शांगी रूप जिनागम के सूत्र और अर्थ के विषय में विशेषतः निपुण होते हैं । अतएव उनकी योग्यता एवं क्षमता मान्य है, कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे, उसका जिनागम के साथ कुछ भी विरोध नहीं हो सकता । जिनोक्त विषयों का संक्षेप या विस्तार करके तत्कालीन समाज के अनुकूल ग्रंथ रचना करना ही उनका एक मात्र प्रयोजन होता है । अतएव उन ग्रंथों को सहज ही में संघ ने जिनागमान्तर्गत कर लिया है । इनका प्रामाण्य स्वतन्त्रभाव से नहीं, किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविसंवाद - प्रयुक्त होने से है ।
संपूर्ण श्रुतज्ञान जिसने हस्तगत कर लिया हो, उसका केवली के वचन के साथ विरोध न होने में एक यह भी दलील दी जाती है, कि सभी पदार्थ तो वचनगोचर होने की योग्यता नहीं रखते । संपूर्ण ज्ञेय का कुछ अंश ही तीर्थंकर के वचनगोचर हो सकता है। उन वचनरूप द्रव्यागम श्रुतज्ञान को जो संपूर्ण रूप में हस्तगत कर लेता है, वही तो श्रुतकेवली होता है । अतएव जिस बात को तीर्थंकर ने कहा था, उसको श्रुतकेवली भी कह सकता है "। इस दृष्टि से केवली और श्रुतकेवली में कोई विशेष अन्तर न होने के कारण दोनों का प्रामाण्य समानरूप से है ।
कालक्रम से वीरनि० १७० वर्ष के बाद और मतान्तर से १६२ वर्ष के बाद, जैन संघ में जब श्रुतकेवली का भी अभाव हो गया, और केवल दशपूर्वधर ही रह गए तब उनकी विशेष योग्यता को ध्यान में रख कर जैनसंघ ने दशपूर्वधर ग्रथित ग्रंथों को भी आगम में समाविष्ट कर लिया। इन ग्रंथों का भी प्रामाण्य स्वतन्त्र भाव से नहीं, किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविरोध होने से है ।
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भद्रबाहु की प्राज्ञा के अनुसार वे दशपूर्व ही अन्य को पढ़ा सकते थे । प्रतएव उनके बाद दशपूर्वी हुए । नित्थोगालीय ७४२. श्रावश्यक- -रिण भा० २, पृ० १८७.
बृहत्कल्पभाष्य गा० ६६४.
१५ वही ε६३, ६६६.
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