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प्रमेय-खण्ड
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कुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकाय हैं यावत् असंख्यात वायुकाय हैं, अनन्त वनस्पतिकाय हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं यावत् असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वानव्यंतर हैं यावत् अनन्त सिद्ध हैं। इसीलिए जीवपर्याय अनन्त हैं। यह कथन प्रज्ञापना के विशेष पद में तथा भगवती में (२५.५ ) है। भगवती में (२५.२) जहाँ द्रव्य के भेदों की चर्चा है, वहाँ उन भेदों को प्रज्ञापनागत पर्यायभेदों के समान समझ लेने को कहा है । तथा जीव और अजीव के पर्यायों की ही चर्चा करने वाले समूचे उस प्रज्ञापना के पद का नाम विशेषपद दिया गया है । इस से यही फलित होता है कि प्रस्तुत चर्चा में पर्याय शब्द का अर्थ विशेष है अर्थात् तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से जो पर्याय हैं अर्थात् विशेष विशेष व्यक्तियाँ हैं, वे ही पर्याय हैं । सारांश यह है कि समस्त जीव गिने जाएँ तो वे अनन्त होते हैं अतएव जीवपर्याय अनन्त कहे गए हैं । स्पष्ट है कि ये पर्याय तिर्यग्सामान्य की दृष्टि से गिनाए गए हैं।
प्रस्तुत में पर्याय शब्द तिर्यग्सामान्य के विशेष का वाचक है। यह बात अजीव पर्यायों की गिनती से भी स्पष्ट होती है । अजीव पर्यायों की गणना निम्नानुसार है--- (प्रज्ञापना पद ५)
अजीव पर्याय
रूपी १. स्कंध २. स्कंधदेश ३. स्कंधप्रदेश ४. परमाणुपुद्गल
अरूपी १. धर्मास्तिकाय २. धर्मास्तिकायदेश ३. धर्मास्तिकाय प्रदेश ४. अधर्मास्तिकाय ५. , देश ६. ,, प्रदेश ७. आकाशास्तिकाय ८. , देश ६. ,, प्रदेश १०. अद्धासमय
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