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प्रमेय-खण्ड
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४. इन्हीं अपेक्षाओं की सूचना के लिए प्रत्येक भंग-वाक्य में 'स्यात्' ऐसा पद रखा जाता है। इसी से यह वाद स्याद्वाद कहलाता है । इस और अन्य सूत्र के आधार से इतना निश्चित है कि जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षा का उपादान हो वहाँ 'स्यात्' का प्रयोग नहीं किया गया है। और जहाँ अपेक्षा का साक्षात् उपादान नहीं है, वहाँ स्यात् का प्रयोग किया गया है। अतएव अपेक्षा का द्योतन करने के लिए 'स्यात्' पद का प्रयोग करना चाहिए यह मन्तव्य इस सूत्र से फलित होता है।
५. जैसा पहले बताया है स्याद्वाद के भंगों में से प्रथम के चार भंग की सामग्री अर्थात् चार विरोधी पक्ष तो भगवान् महावीर के सामने थे। उन्हीं पक्षों के आधार पर स्याद्वाद के प्रथम चार भंगों की योजना भगवान् ने की है। किन्तु शेष भंगों की योजना भगवान् की अपनी है, ऐसा प्रतीत होता है। शेष-भंग प्रथम के चारों का विविध रीति से सम्मेलन ही है। भंग-विद्या में कुशल ५ भगवान् के लिए ऐसी योजना कर देना कोई कठिन बात नहीं कही जा सकती।
६. अवक्तव्य यह भंग तीसरा है। कुछ जैन दार्शनिकों ने इस भंग को चौथा स्थान दिया है। आगम में अवक्तव्य का चौ. स्थान नहीं है। अतएव यह विचारणीय है, कि अवक्तव्य को चौथा स्थान कब से, किस ने और क्यों दिया।
७. स्याद्वाद के भंगों में सभी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात ही भंग होने चाहिए, न कम, न अधिक, ऐसी जो जैनदार्शनिकों ने व्यवस्था की है, वह निर्मूल नहीं है। क्योंकि त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और उससे अधिक प्रदेशिक स्कन्धों के भंगों की संख्या जो प्रस्तुत सूत्र में दी गई है, उससे यही मालूम होता है कि मूल भंग सात वे ही हैं, जो जैनदार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं। जो अधिक भंग संख्या सूत्र में निर्दिष्ट है, वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं है, किन्तु एकवचन-बहुवचन के भेद की विवक्षा के कारण ही है । यदि वचनभेदकृत संख्यावृद्धि को निकाल दिया जाए तो मौलिक भंग सात
८५ भंगों की योजना का कौशल देखना हो, तो भगवती सूत्र श० ६ उ० ५ प्रादि देखना चाहिए।
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