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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन २१३ परिणामों को वाचक ने आदिमान् और अनादि ऐसे दो भेदों में विभक्त किया है। प्रत्येक द्रव्य में दोनों प्रकार के परिणाम होते हैं । जैसे जीव में जीवत्व, द्रव्यत्व, इत्यादि अनादि परिणाम हैं और योग और उपयोग आदिमान् परिणाम हैं। उनका यह विश्लेषण जैनागम और इतर दर्शन के मामिक अभ्यास का फल है। गुण और पर्याय से द्रव्य वियुक्त नहीं:
वाचक उमास्वातिकृत द्रव्य के लक्षण से यह तो फलित हो ही जाता है, कि गुण और पर्याय से रहित ऐसा कोई द्रव्य हो नहीं सकता। इस बात को उन्होंने अन्यत्र स्पष्ट शब्दों में कहा भी है-"द्रध्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तःप्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव इति ।' तत्त्वार्थ-भाष्य १५ । गुण और पर्याय से वस्तुतः पृथक ऐसा द्रव्य नहीं होता, किन्तु प्रज्ञा से उसकी कल्पना की जा सकती है। गुण और पर्याय की विवक्षा न करके द्रव्य को गुण और पर्याय से पृथक् समझा जा सकता है, पर वस्तुतः पृथक् नहीं किया जा सकता। वैशेषिक परिभाषा में कहना हो, तो द्रव्य और गुण-पर्याय अयुत सिद्ध हैं ।
गुण-पर्याय से रहित ऐसे द्रव्य की अनुपलब्धि के कथन से यह तो स्पष्ट नहीं होता है, कि द्रव्य से रहित गुण-पर्याय उपलब्ध हो सकते हैं या नहीं। इसका स्पष्टीकरण बाद के आचार्यों ने किया है। कालद्रव्य :
जैन आगमों में द्रव्य वर्णन प्रसंग में कालद्रव्य को पृथक् गिनाया गया है, और उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है। इससे आगमकाल से
"तस्वार्ष० ५.४२. से। १२ चौथा कर्मग्रन्थ पृ० १५७ ।
१३ भगवती २.१०.१२० । ११.११.४२४ । १३.४.४८२,४८३ १२५.४ । इत्यादि । प्राज्ञापना पद १ । उत्तरा २८.१० । ___१४ स्थानांग सूत्र ६५ । जीवाभिगम । ४ "किमियं भंते ! लोएत्ति पवच्चा ? गोयमा, पंचयिकाया।" भगवती १३.४.४५१ । पंचास्तिकाय गा० ३. । तस्वार्थ भा० ३.६. ।
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