________________
आगम-युग का जैन दर्शन
को नहीं । ऐसा कह करके तो आचार्य ने जैन दर्शन और अद्वैतवाद का अन्तर बहुत कम कर दिया है, और जैन दर्शन को अद्वैतवाद के निकट रख दिया है ।
२६०
आचार्य कुन्दकुन्दकृत सर्वज्ञ की उक्त व्याख्या अपूर्व है और उन्हीं के कुछ अनुयायियों तक सीमित रही है । दिगम्बर जैन दार्शनिक अकलंकादि ने भी इसे छोड़ हो दिया है ।
ज्ञान की स्व-पर- प्रकाशकता :
दार्शनिकों में यह एक विवाद का विषय रहा है, कि ज्ञान को स्वप्रकाशक, परप्रकाशक या स्वपरप्रकाशक माना जाए | वाचक ने इस चर्चा को ज्ञान के विवेचन में छेड़ा ही नहीं है । संभवत: आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम जैन आचार्य हैं, जिन्होंने ज्ञान को स्वपरप्रकाशक मान कर इस चर्चा का सूत्रपात जैन दर्शन में किया । आचार्य कुन्दकुन्द के बाद के सभी आचार्यों ने आचार्य के इस मन्तव्य को एक स्वर से माना है ।
आचार्य की इस चर्चा का सार नीचे दिया जाता है जिससे उनकी दलीलों का क्रम ध्यान में आ जाएगा - ( नियमसार - १६०१७०) ।
प्रश्न- यदि ज्ञान को परद्रव्यप्रकाशक, दर्शन को आत्मा का - स्वद्रव्य का ( जीव का ) प्रकाशक और आत्मा को स्वपरप्रकाशक माना जाए तो क्या दोष है ? (१६०)
उत्तर- - यही दोष है, कि ऐसा मानने पर ज्ञान और दर्शन का अत्यन्त वैलक्षण्य होने से दोनों को अत्यन्त भिन्न मानना पड़ेगा । क्योंकि ज्ञान तो परद्रव्य को जानता है, दर्शन नहीं । ( १६१ )
दूसरी आपत्ति यह है, कि स्वपरप्रकाशक होने से आत्मा तो पर का भी प्रकाशक है । अतएव वह दर्शन से जो कि परप्रकाशक नहीं, भिन्न ही सिद्ध होगा । ( १६२ )
१५२ " जाणादि पस्सदि सव्यं ववहारणयेण केवली भगवं ।
harाणी जादि पस्सदि नियमेण अप्पाणं || नियमसार १५८
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org