Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 338
________________ ३१२ भागम-युग का जैन-दर्शन हैं२३ । प्राचार्य ने प्रसिद्ध नगमादि सात नयों के साथ भी इन बारह नयों का सम्बन्ध बतलाया है । तदनुसार विधि आदि का सम्बन्ध इस प्रकार है । १ व्यवहार नय, २-४ संग्रह नय, ५-६ नैगम नय ७ ऋजुसूत्र नय, ८-६ शब्दनय, १० समभिरूढ़, ११-१२ एवंभूत नय। नयचक्र की रचना का सामान्य परिचय कर लेने के बाद अब यह देखें कि उनमें नयों-दर्शनों का किस क्रम से उत्थान और निरास है। (१) सर्व प्रथम द्रव्याथिक के भेदरूप व्यवहार नय के आश्रय से अज्ञानवाद का उत्थान है । इस नय का मन्तव्य है कि लोकव्यवहार को प्रमाण मानकर अपना व्यवहार चलाना चाहिए। इसमें शास्त्र का कुछ काम नहीं । शास्त्रों के झगड़े में पड़ने से तो किसी बात का निर्णय हो नहीं सकता है । और तो और ये शास्त्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण का भी निर्दोष सक्षण नहीं कर सके। वसुबन्धु के प्रत्यक्ष लक्षण में दिङ्नाग ने दोष दिखाया है और स्वयं दिङ्नाग का प्रत्यक्ष लक्षण भी अनेक दोषों से दूषित है । यही हाल सांख्यों के वार्षगण्यकृत प्रत्यक्ष लक्षण का और वैशेषिक के प्रत्यक्ष का है । प्रमाण के आधार पर ये दार्शनिक वस्तु को एकान्त सामान्य विशेष और उभयरूप मानते हैं, किन्तु उनकी मान्यता में विरोध है । सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद का भी ये दार्शनिक समर्थन करते हैं किन्तु ये वाद भी ठीक नहीं । कारण होने पर भी कार्य होता ही है यह भी नियम नहीं । शब्दों के अर्थ जो व्यवहार में प्रचलित हों उन्हें मान कर व्यवहार चलाना चाहिए। किसी शास्त्र के आधार पर शब्दों के अर्थ का निर्णय हो नहीं सकता है । अत एव व्यवहार नय का निर्णय है कि वस्तुस्वरूप उसके यथार्थरूप में कभी जाना नहीं जा सकता है-अत एव उसे जानने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार व्यवहारनय के एक भेदरूप से प्रथम आरे में अज्ञानवाद का उत्थान है। इस अज्ञानवाद का यह भी अर्थ है कि पृथ्वी आदि सभी वस्तुएँ अज्ञान २३ वही ४५. ७. पृ० १२३ । २४ वही ४५.७. पृ० १२४ । Jain Education International For Private-& Personal Use Only www.jainelibrary.org

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