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प्राचार्य मल्लवादी का नयचक्र ३१७ भंते ! लोएत्ति पवुच्चति ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव" (स्थानांग) इत्यादि आगम वाक्यों से सम्बन्ध जोड़ा गया है ।
(४) सर्व प्रकार के कार्यों में समर्थ ईश्वर की आवश्यकता जब स्थापित हुई तब आक्षेप यह हुआ कि आवश्यकता मान्य है । किन्तु समग्र संसार के प्राणियों का ईश्वर अन्य कोई पृथगात्मा नहीं, किन्तु उन प्राणियों के कर्म ही ईश्वर हैं । कर्म के कारण ही जीव प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप फल भोगता है । कर्म ईश्वर के अधीन नहीं। ईश्वर कर्म के अधीन है । अतएव सामर्थ्य कर्म का ही मानना चाहिए, ईश्वर का नहीं । इस प्रकार कर्मवाद के द्वारा ईश्वरवाद का निराकरण करके कर्म का प्राधान्य चौथे अर में स्थापित किया गया। यह विधिनियम का प्रथम विकल्प है।
दार्शनिकों में नैयायिक-वैशेषिकों का ईश्वरकारणवाद है। उसका निरास अन्य सभी कर्मवादी दर्शन करते हैं । अतएव यहाँ ईश्वरवाद के विरुद्ध कर्मवाद का उत्थान आचार्य ने स्थापित किया है। यह कर्म भी पूरुष-कर्म समझना चाहिए । यह स्पष्टीकरण किया है कि पुरुष के लिए कर्म आदिकर हैं अर्थात् कर्म से पुरुष की नाना अवस्था होती हैं और कर्म के लिए पुरुष आदिकर हैं । जो आदिकर है वही कर्ता है । यहाँ कर्म और आत्मा का भेद नहीं समझना चाहिए । आत्मा ही कर्म है और कर्म ही आत्मा है । इस दृष्टि से कर्म-कारणता का एकान्त और पुरुष या पुरुषकार का एकान्त ये दोनों ठोक नहीं-आचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है। क्योंकि पुरुष नहीं तो कर्मप्रवृत्ति नहीं, और कर्म नहीं तो-पुरुषप्रवृत्ति नहीं । अतएव इन दोनों का कर्तृत्व परस्पर सापेक्ष है । एक परिणामक है तो दूसरा परिणामी है, अतएव दोनों में ऐक्य है । इसी दलील से आचार्य ने सर्वैक्य सिद्ध किया है । आत्मा, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि सभी द्रव्यों का ऐक्य भावरूप से सिद्ध किया है और अन्त में युक्तिबल से सर्वसर्वात्मकता का प्रतिपादन किया है और उसके समर्थन में-'जे एकणामे से बहुनामे' (आचारांग १. ३. ४.) इस प्रागमवाक्य को उद्ध त किया है । इस अर के प्रारंभ में ईश्वर का निरास
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