Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 342
________________ ३१६ आगम-युग का जन-दर्शन ववाद और भाववाद का उत्थान विधिविधिनय के विकल्परूप से आचार्य ने द्वितीय अर के अन्तर्गत किया है। भाववाद का तात्पर्य अभेदवाद से-द्रव्यवाद से है। इस वाद का उत्थान भगवती के निम्न वाक्य से माना गया है-"किं भयवं! एके भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अव्वए भवं, अवट्टिए भवं, अणेगभूतभव्वभविए भवं ! सोमिला, एके वि अहं दुवे वि अहं..." इत्यादि भगवती १८. १०. ६४७ । (३) द्वितीय अर में अद्वैत दृष्टि से विभिन्न चर्चा हुई है । अद्वैत को किसी ने पुरुष कहा तो किसी ने नियति आदि । किन्तु मूल तत्त्व एक ही है उसके नाम में या स्वरूप में विवाद चाहे भले ही हो, किन्तु वह तत्त्व अद्वत है, यह सभी वादियों का मन्तव्य है। इस अद्वततत्त्व का खास कर पुरुषाद्वत के निरास द्वारा निराकरण करके सांख्य ने पुरुष और प्रकृति के द्वत को तृतीय अर में स्थापित किया है । किन्तु अद्वतकारणवाद में जो दोष थे वैसे ही दोषों का अवतरण एकरूप प्रकृति यदि नाना कार्यों का संपादन करती है तो उसमें भी क्यों न हो यह प्रश्न सांख्यों के समक्ष भी उपस्थित होता है । और पुरुषातवाद की तरह सांख्यों का प्रधानकारणवाद भी खण्डित हो जाता है । इस प्रसंग में सांख्यों के द्वारा संमत सत्कार्यवाद में असत्कार्य की आपत्ति दी गई है और सत्त्व-रजस्-तमस् के तथा सुख-दुःख-मोह के ऐक्य की भी आपत्ति दी गई है। इस प्रकार सांख्यमत का निरास करके प्रकृतिवाद के स्थान में ईश्वरवाद स्थापित किया है। प्रकृति के विकार होते हैं यह ठीक है, किन्तु उन विकारों को करने वाला कोई न हो तो विकारों की घटना बन नहीं सकती। अत एव सर्व कार्यों में कारण रूप ईश्वर को मानना आवश्यक है। इस ईश्वरवाद का समर्थन श्वेताश्वरोपनिषद् की ‘एको वशी , निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा य: करोति' इत्यादि (६. १२) कारिका के द्वारा किया गया है । और “दुविहा पण्णवणा पण्णत्ताजीवपण्णवणा अजीवपण्णवणा च" (प्रज्ञापना १. १) तथा "किमिदं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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