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मागम-युग का जैन-दर्शन ६. विधिनियमविधिः (विधिनियमयोविधिः) । ७. उभयोभयम् (विधिनियमयोविधिनियमौ) । ८. उभयनियमः (विधिनियमयोनियमः) । ६. नियमः। १०. नियमविधिः (नियमस्य विधिः) । ११. नियमोभयम् (नियमस्य विधिनियमौ) । १२. नियम-नियमः (नियमस्य नियमः)" !
चक्र के आरे एक तुम्ब या नाभि में संलग्न होते हैं उसी प्रकार ये सभी नय स्याद्वाद या अनेकान्त रूप तुम्ब या नाभि में संलग्न हैं। यदि ये आरे तुम्ब में प्रतिष्ठित न हों तो बिखर जायेंगे । उसी प्रकार ये सभी नय यदि स्याद्वाद में स्थान नहीं पाते तो उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती । अर्थात् अभिप्रायभेदों को, नयभेदों को या दर्शनभेदों को मिलाने वाला स्याद्वादतुम्ब नयचक्र में महत्त्व का स्थान पाता है।
दो आरों के बीच चक्र में अन्तर होता है। उसके स्थान में आचार्य मल्लवादी ने पूर्व नय का खण्डन भाग रखा है। अर्थात् जब तक पूर्व नय में कुछ दोष न हो तब तक उत्तर नय का उत्थान ही नहीं हो सकता है। पूर्व नय के दोषों का दिग्दर्शन कराना यह दो नयरूप आरों के बीच का अन्तर है । जिस प्रकार अन्तर के बाद ही नया आरा आता है उसी प्रकार पूर्व नय के दोषदर्शन के बाद ही नया नय अपना मत स्थापित करता है। दूसरा नय प्रथम नय का निरास करेगा और अपनी स्थापना करेगा, तीसरा दूसरे का निरास और अपनी स्थापना करेगा। इस प्रकार क्रमशः होते-होते ग्यारहवें नय का निरास कर के अपनी स्थापना बारहवाँ नय करता है । यह निरास और स्थापना यहीं समाप्त नहीं होतीं। क्योंकि नयों के चक्र की रचना आचार्य ने की है अतएव बारहवें नय के बाद प्रथम नय का स्थान आता है, अतएव वह
१९ नयचक्र पृ० १०॥ २० भात्मानंद प्रकाश ४५. ७. पृ० १२१ । " श्री प्रात्मानंद प्रकाश ४५. ७. पृ० १२२ ।
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