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प्राचार्य मल्लवादी का नयचक्र ३०६
जब जैन दार्शनिकों ने यह नया मार्ग अपनाया तब प्राचीन पद्धति से लिखे गए प्रकरण ग्रन्थ गौण हो जाएँ, यह स्वाभाविक है । यही कारण है कि नयचक्र पठन-पाठन से वंचित होकर क्रमशः काल - कवलित हो गया—यह कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा । नयचक्र के पठन-पाठन में से लुप्त होने का एक दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि नयचक्र की युक्तियों का उपयोग करके अन्य सारात्मक सरल ग्रन्थ बन गए, तब भाव और भाषा की दृष्टि से क्लिष्ट और विस्तृत नयचक्र की उपेक्षा होना स्वाभाविक है । नयचक्र की उपेक्षा का यह भी कारण हो सकता है कि नयचकोत्तरकालीन कुमारिल और धर्मकीर्ति जैसे प्रचण्ड दार्शनिकों के कारण भारतीय दर्शनों का जो विकास हुआ उससे नयचक्र वंचित था । नयचक्र की इन दार्शनिकों के बाद कोई टीका भी नहीं लिखी गई, जिससे वह नये विकास को आत्मसात् कर लेता ।
नयचक्र का परिचय :
नयचकोत्तरकालीन ग्रन्थों ने नयचक्र की परिभाषाओं को भी छोड़ दिया है । सिद्धसेन दिवाकर ने प्रसिद्ध सात नय को ही दो मूल नय में समाविष्ट किया है । किन्तु मल्लवादी ने, क्योंकि नयविचार को एक चक्र का रूप दिया, अतएव चक्र की कल्पना के अनुकूल नयों का वर्गीकरण किया है जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । आचार्य मल्ल - वादी की प्रतिभा की प्रतीति भी चक्र रचना से ही विद्वानों को हो जाती है ।
चक्र के बारह आरे होते हैं । मल्लवादी ने सात नय के स्थान में बारह नयों की कल्पना की है, अतएव नयचक्र का दूसरा नाम द्वादशारनयचक्र भी है । वे ये हैं
१. विधिः ।
२. विधि-विधि ( विधेविधिः ) ।
३. विध्युभयम् (विधेविधिश्च नियमश्च ) |
४. विधिनियम ( विधेनियमः ) ।
५. विधिनियमौ ( विधिश्च नियमश्च ) ।
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