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प्राचार्य मल्लवादी का नयचक्र ३०७ अध्ययन में उठ सकती है। श्रुतदेवता की आपत्तिदर्शक कथा का मूल इसमें संभव है । अतएव नये नयचक्र की रचना भी आवश्यक हो जाती है, जिसमें कुछ परिमार्जन किया गया हो । आचार्य मल्लवादी ने अपने नयचक्र में ऐसा परिमार्जन करने का प्रयत्न किया हो यह संभव है । किन्तु उसकी जो दुर्गति हुई और प्रचार में से वह भी प्रायः लुप्त-सा हो गया उसका कारण खोजा जाए, तो पता लगेगा कि परिमार्जन का प्रयत्न होने पर भी जैनदर्शन की सर्वनयमयता का सिद्धान्त उसके भी उच्छेद में कारण हुआ है। नयचक्र की विशेषता :
नयचक्र और अन्य ग्रन्थों की तुलना की जाय तो एक बात अत्यन्त स्पष्ट होती है कि जब नयचक्र के बाद के ग्रन्थ नयों के अर्थात् जैनेतर दर्शनों के मत का खण्डन ही करते हैं, तब नयचक्र में एक तटस्थ न्यायाधीश की तरह नयों के गुण और दोष दोनों की समीक्षा की गई है।
नयों के विवेचन की प्रक्रिया का भेद भी नयचक्र और अन्य ग्रन्थों में स्पष्ट है । नयचक्र में वस्तुतः दूसरे जैनेतर मतों को ही नय के रूप में वर्णित किया गया है और उन मतों के उत्तर पक्ष जो कि स्वयं भी एक जैनेतर पक्ष ही होते हैं---उनके द्वारा भी पूर्वपक्ष का मात्र खण्डन ही नहीं; किन्तु पूर्व पक्ष में जो गुण हैं उनके स्वीकार की ओर निर्देश भी किया गया है। इस प्रकार उत्तरोत्तर जैनेतर मतों को ही नय मान कर समग्र ग्रन्थ की रचना हई है। सारांश यह है कि नय यह कोई स्वतः जैनमन्तव्य नहीं, किन्तु जैनेतर मन्तव्य जो लोक में प्रचलित थे उन्हीं को नय मान कर उनका संग्रह विविध नयों के रूप में किया गया है और किस प्रकार जैनदर्शन सर्वनयमय है यह सिद्ध किया गया है । अथवा मिथ्यामतों का समूह होकर भी जैनमत किस प्रकार सम्यक् है और मिथ्यामतों के समूह का अनेकान्तवाद में किस प्रकार साम
१० देखो लघीयस्त्रय, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणनयतत्त्वालोक प्रादि ।
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