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भागम-युग का जैन-दर्शन
होता है, तथापि विचित्र शक्ति के कारण अर्थ को जान लेता है । इसीलिए अर्थ में ज्ञान है, ऐसा कहा जाता है।५९ । इसी प्रकार, यदि अर्थ में ज्ञान है, तो ज्ञान में भी अर्थ है, यह भी मानना उचित है। क्योंकि यदि ज्ञान में अर्थ नहीं, तो ज्ञान किसका होगा१६० ? इस प्रकार ज्ञान और अर्थ का परस्पर में प्रवेश न होते हुए भी विषयविषयीभाव के कारण 'ज्ञान' में अर्थ' और 'अर्थ में ज्ञान' इस व्यवहार की उपपत्ति आचार्य ने बतलाई है । ज्ञान-दर्शन का योगपद्य :
वाचक की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने भी केवली के ज्ञान और दर्शन का योगपद्य माना है । विशेषता यह है, कि आचार्य ने योगपद्य के समर्थन में दृष्टान्त दिया है, कि जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप युगपद् होते हैं, वैसे ही केवली के ज्ञान और दर्शन का योगपद्य है -
"जुगवं वट्टइ गाणं केवलणारिणस्स दंसणं तहा
दिणयर पयासतापं जह वट्टइ तह मुगेयव्वं ॥" नियमसार १५६ । सर्वज्ञ का ज्ञान :
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी अभेद दृष्टि के अनुरूप निश्चय-दृष्टि से सर्वज्ञ की नयी व्याख्या की है और भेद-दृष्टि का अवलम्बन करने वालों के अनुकूल होकर व्यवहार-दृष्टि से सर्वज्ञ की वही व्याख्या की है, जो आगमों में तथा वाचक के तत्त्वार्थ में है । उन्होंने कहा है
"जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥"
--नियमसार १५८ व्यवहार-दृष्टि से कहा जाता है, कि केवली सभी द्रव्यों को जानते हैं, किन्तु परमार्थतः वह आत्मा को ही जानता है ।
___ सर्वज्ञ के व्यावहारिक ज्ञान की वर्णना करते हुए उन्होंने इस बात को बलपूर्वक कहा है, कि त्रैकालिक सभी द्रव्यों और पर्यायों का
१५१ प्रवचन० १.३०। १६° वही ३१ ।
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