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मागम-युग का जैन-दर्शन
बहुप्रकाराः स्थितयः परस्परं विरोषयुक्ताः कथमाशु निश्चयः । विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातन-प्रेमजडस्य युज्यते ॥
पुरानी परम्पराएँ अनेक प्रकार की हैं, उनमें परस्पर विरोध भी है । अतः बिना समीक्षा किए प्राचीनता के नाम पर, यों ही झटपट निर्णय नहीं दिया जा सकता। किसी कार्य विशेष की सिद्धि के लिए "यही प्राचीन व्यवस्था ठीक है, अन्य नहीं' यह बात केवल पुरातनप्रेमी जड़ ही कह सकते हैं।
जनोऽयमन्यस्य स्वयं पुरातनः पुरातनरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ॥
आज जिसे हम नवीन कहकर उड़ा देना चाहते हैं, वही व्यक्ति मरने के बाद नयी पीढ़ी के लिए पुराना हो जाएगा, जब कि प्राचीनता इस प्रकार अस्थिर है, तब बिना विचार किए पुरानी बातों को कौन पसन्द कर सकता है ?
यदेव किञ्चित् विषमप्रकल्पितं पुरातनरुक्तमिति प्रशस्यते । विनिश्चिताप्यच मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृति-मोह एव सः॥
कितनी ही असम्बद्ध और असंगत बातें प्राचीनता के नाम पर, प्रशंसित हो रही हैं, और चल रही हैं । परन्तु आज के मनुष्य की प्रत्यक्ष सिद्ध बोधगम्य और युक्तिप्रवण रचना भी नवीनता के कारण दुरदुराई जा रही है। यह तो प्रत्यक्ष के ऊपर अतीत की स्मृति की विजय है । यह मात्र स्मृति-मूढ़ता है ।
-प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर
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