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दार्शनिक साहित्य का विकास क्रम
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अभेद की ओर दृष्टि करता है, और भेद की ओर उपेक्षा-शील हो जाता है, तब उसे अभेद ही अभेद नजर आता है । जैन- दृष्टि से उनका यह दर्शन द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा से हुआ है, यह कहा जाएगा । किन्तु दूसरा व्यक्ति अभेदगामी दृष्टि से काम न लेकर यदि भेद-गामी दृष्टि यानी पर्यायार्थिक नय के बल से प्रवृत्त होता है, तो उसे सर्वत्र भेद ही भेद दिखाई देगा | वस्तुतः पदार्थ में भेद भी है और अभेद भी है । सांख्यों ने अभेद ही को मुख्य माना और बौद्धों ने भेद ही को मुख्य माना और वे दोनों परस्पर के खण्डन करने में प्रवृत्त हुए । अतएव वे दोनों मिथ्या हैं । किन्तु स्याद्वादी की दृष्टि में भेद दर्शन भी ठीक है और अभेद दर्शन भी। दो मिथ्या अन्त मिलकर ही स्याद्वाद होता है, फिर भी वह सम्यग् है । उसका कारण यह है, कि स्याद्वाद में उन दोनों विरुद्ध मतों का समन्वय है, दोनों विरुद्ध मतों का विरोध लुप्त हो गया है । इसी प्रकार नित्य - अनित्यवाद, हेतुवाद - अहेतुवाद, भाव अभाववाद, सत्कार्यवादअसत्कार्यवाद आदि नाना विरुद्धवादों का समन्वय सिद्धसेन ने किया है ।
सिद्धसेन के इस कार्य में समन्तभद्र ने भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है । उन्होंने तत्कालीन विरोधी एकान्तवादों में दोष बताकर स्याद्वाद मानने पर ही निर्दोषता हो सकती है, इस बात को स्पष्ट किया है । उनकी विशेषता यह है, कि उन्होंने विरोधी वादों के युगल को लेकर सप्तभंगियों की योजना कैसे करना — इसका स्पष्टीकरण, भावअभाव, नित्य-अनित्य, भेद- अभेद, हेतुवाद - अहेतुवाद, सामान्य विशेष आदि तत्कालीन नानावादों में सप्तभंगी की योजना बता के कर दिया है । वस्तुतः समन्तभद्र-कृत आप्त-मीमांसा अनेकान्त की व्यवस्था के लिए श्रेष्ठ ग्रंथ सिद्ध हुआ है । आप्त किसे माना जाए ? इस प्रश्न के उत्तर में ही उन्होंने यह सिद्ध किया है, कि स्याद्वाद ही निर्दोष है । अतएव उस वाद के उपदेशक ही आप्त हो सकते है । दूसरों के वादों में अनेक दोषों का दर्शन करा कर उन्होंने सिद्ध किया है कि दूसरे आप्त नहीं हो सकते, क्योंकि उनका दर्शन बाधित है । समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन में दूसरों के दर्शन में दोष बताकर उन दोषों का अभाव
जैन दर्शन में सिद्ध किया
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