Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 324
________________ २६८ प्रागम-युग का जैन-दर्शन परम्परा प्राप्त थी। स्वयं भगवान महावीर अपने उपदेश की तुलना भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से करते हैं । इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उनके समक्ष पार्श्वनाथ का श्रुत किसी न किसी रूप में था। विद्वानों की कल्पना है कि दृष्टिवाद में जो पूर्वगत के नाम से उल्लिखित श्रुत है वही पार्श्वनाथ परम्परा का श्रुत होना चाहिए । पार्श्वनाथपरंपरा से प्राप्त श्रुत को भगवान् महावीर ने विकसित किया । वह आज जैनश्रुत या जैनागम के नाम से प्रसिद्ध है। जिस प्रकार वैदिक परंपरा में वेद के आधार पर बाद में नाना दर्शनों के विकास होने पर सूत्रात्मक दार्शनिक साहित्य की सृष्टि हुई और बौद्ध परंपरा में अभिधर्म तथा महायान-दर्शन का विकास होकर विविध दार्शनिक प्रकरण ग्रन्थों की रचना हुई, उसी प्रकार जैन साहित्य में भी दार्शनिक प्रकरण ग्रन्थों की सृष्टि हुई है। वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीनों परंपरा के साहित्य का विकास घात-प्रत्याघात और आदान-प्रदान के आधार पर हुआ है । उपनिषद् युग में भारतीय दार्शनिक चिन्तन परंपरा का प्रस्फुटीकरण हुआ जान पड़ता है और उसके बाद तो दार्शनिक व्यवस्था का युग प्रारंभ हो जाता है। वैदिक परंपरा में परिणामवादी सांख्यविचारधारा के विकसित और विरोधी रूप में नाना प्रकार के वेदान्तदर्शनों का आविर्भाव होता है, और सांख्यों के परिणामवाद के विरोधी के रूप में नैयायिक-वैशेषिक दर्शनों का आविर्भाव होता है। बौद्ध दर्शनों का विकास भी परिणामवाद के आधार पर ही हुआ है । अनात्मवादी होकर भी पुनर्जन्म और कर्मवाद से चिपके रहने के कारण बौद्धों में सन्तति के रूप में परिणामवाद आ ही गया है; किन्तु क्षणिकवाद को उसके तर्कसिद्ध परिणामों पर पहुँचाने के लिए बौद्धदार्शनिकों ने जो चिंतन किया उसी में से एक ओर बौद्ध परंपरा का विकास सौत्रान्तिकों में हुआ जो द्रव्य का सर्वथा इनकार करते हैं; किन्तु देश और काल की दृष्टि से अत्यन्त भिन्न ऐसे क्षणों को मानते हैं और दूसरी ओर अद्वैत परंपरा में हुआ जो वेदान्त दर्शनों के ब्रह्माद्वैत ५ भगवती श० ५. उद्दे० ६. सू० २२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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