Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 315
________________ दार्शनिक साहित्य का विकास-क्रम २८६ विद्वानों ने अपनी कलम चलाई और उस नये प्रकाश में अपना दर्शन परिष्कृत किया । इन सभी को तत्कालीन दार्शनिक क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ वादी धर्मकीर्ति ने उत्तर देकर परास्त किया । धर्मकोति के बाद ग्रथित कोई भी ऐसा दार्शनिक ग्रन्थ नहीं है, जिसमें धर्मकीर्ति का जिक्र न हो । प्रायः सभी पश्चाद्भावी दार्शनिकों ने उनके पक्ष-विरोधी तर्कों का उत्तर देने का प्रयत्न किया है और स्वानुकूल तर्कों को अपना लिया है । तदनन्तर धर्मकीर्ति की शिष्य-परम्परा ने धर्मकीति के पक्षका समर्थन किया और अन्य दार्शनिकों ने उनके पक्ष का खण्डन किया । यह वाद-प्रतिवाद जब तक बौद्ध दार्शनिक भारत छोड़कर बाहर नहीं चले गए, वराबर होता रहा । इस दीर्घकालीन संघर्ष में जैनों ने भी भाग लिया है और अपना प्रमाण - शास्त्र व्यवस्थित किया । न्यायावतार नामक एक छोटी-सी कृति सिद्धसेन ने बनाई थी । पात्रस्वामी ने दिग्नाग के हेतु लक्षण के खण्डन में त्रिलक्षण - कदर्थेन नामक ग्रन्थ बनाया था | और भी छोटे-मोटे ग्रन्थ बने होंगे, किन्तु वे सब कालकवलित हो गए हैं । जैन दृष्टि से प्रमाण-शास्त्र की प्रतिष्ठा पूर्व - परम्परा के आधार से यदि किसी आचार्य ने की है, तो वह अकलंक ही है । अकलंक ने धर्मकीर्ति और उनके शिष्य धर्मोत्तर एवं प्रज्ञाकर का खण्डन करके जैन दृष्टि से प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों की स्थापना की । इन्द्रिय प्रत्यक्ष को व्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा, तथा श्रवधि, मनः पर्यप और केवल ज्ञान को परमार्थिक प्रत्यक्ष कहा । यह बात उन्होंने नयी नहीं को, किन्तु जैन परम्परा के आधार से ही कही है। उन्होंने इन प्रत्यक्षों का तर्क दृष्टि से समर्थन किया, तथा प्रत्येक के लक्षण, विषय और फल का स्पष्टीकरण किया । परोक्ष के भेद रूप से उन्होंने स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रागम को बताया, और प्रत्येक का प्रामाण्य समर्थित किया । स्मृति का प्रामाण्य किसी दार्शनिक ने माना नहीं था । अतएव सब दार्शनिकों की दलीलों का उत्तर देकर उसका प्रामाण्य प्रकलंक ने उपस्थित किया। प्रत्यभिज्ञान को अन्य दार्शनिक प्रत्यक्ष रूप मानते थे, या पृथक् स्वतन्त्र ज्ञान ही न मानते थे, तथा बौद्ध तो उसके प्रामाण्य को भी न मानता था - इन सभी का निराकरण करके उन्होंने उसका पृथक् प्रामाण्य स्थापित किया और उसी में उपमान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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