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२८४ श्रागम-युग का जन-दर्शन
और उनके भाष्य के आधार से प्राकृत गद्य में चूर्णि नामक टीकाओं की रचना विक्रम आठवीं शताब्दी में हुई । सर्वप्रथम संस्कृत टीका के रचयिता जिनभद्र हैं । उनके बाद कोट्टाचार्य, और फिर हरिभद्र हैं । हरिभद्र का समय विक्रम ७५७ - ८२७ मुनि श्री जिनविजयजी ने निश्चित किया है - यह ठीक प्रतीत होता है ।
निर्युक्ति से लेकर संस्कृत टीकाओं तक उत्तरोत्तर तर्कप्रधान शैली का मुख्यतः आश्रय लेकर आगमिक बातों का निरूपण किया गया है । हरिभद्र के बाद शीलाङ्क, अभयदेव और मलयगिरि आदि आचार्य हुए । इन्होंने टीकाओं में तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का पर्याप्त मात्रा में ऊहापोह किया है ।
दिगम्बर आम्नाय के आगमों के ऊपर भी चूर्णियाँ लिखी गई हैं । विक्रम दशवीं शताब्दी में वीरसेनाचार्य ने बृहत्काय टीकाएँ लिखी हैं । ये टीकाएँ भी दार्शनिक चर्चा से परिपूर्ण हैं ।
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आगमों में सब विषयों का वर्णन विप्रकीर्ण था, या अतिविस्तृत । अतएव सर्व विषयों का सिलसिले वार सार-संग्राहक संक्षिप्त सूत्रात्मक शैली से वर्णन करने वाला तत्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ वाचक उमास्वाति ने बनाया | जैन धर्म और दर्शन की मान्यताओं का इस ग्रन्थ में इतने अच्छे ढंग से वर्णन हुआ है, कि जब से वह विक्रम चौथी या पांचवीं शताब्दी में बना तब से जैन विद्वानों का ध्यान विशेषतः इसकी ओर गया है | आचार्य उमास्वाति ने स्वयं इस पर भाष्य लिखा ही था । किन्तु वह पर्याप्त न था, क्योंकि समय की गति के साथ-साथ दार्शनिक चर्चाओं में गम्भीरता और विस्तार बढ़ता जाता था, जिसका समावेश करना अनिवार्य समझा गया । परिणाम यह हुआ कि पूज्यपाद ने छठी शताब्दी में तत्त्वार्थ सूत्र पर एक स्वतंत्र टीका लिखी, जिसमें उन्होंने जैन पारिभाषिक शब्दों के लक्षण निश्चित किए और यत्र-तत्र दिग्नाग आदि बौद्ध और अन्य विद्वानों का अल्प मात्रा में खण्डन भी किया। विक्रम सातवीं आठवीं शताब्दी में अकलंक, सिद्धसेन और उनके बाद हरिभद्र ने अपने समय तक होने वाली चर्चाओं का समावेश भी आपकी अपनी टीकाओं में कर दिया । किन्तु तत्त्वार्थ
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