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प्रागमोत्तर जैन-बर्शन
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व्याख्या में उन्होंने वचन को पूर्वापरदोषरहित कहा है१७४, उस से उनका तात्पर्य दार्शनिकों के पूर्वापर विरोध दोष के राहित्य से है।
नय-निरूपण :
व्यवहार और निश्चय-आचार्य कुन्दकुन्द ने नयों के नैगम आदि भेदों का विवरण नहीं किया है। किन्तु आगमिक व्यवहार और निश्चय नय का स्पष्टीकरण किया है और उन दोनों नयों के आधार से मोक्षमार्ग का और तत्वों का पृथक्करण किया है । आगम में निश्चय और व्यवहार की जो चर्चा है, उस का निर्देश हमने पूर्व में किया है। निश्चय और व्यवहार की व्याख्या आचार्य ने आगमानुकूल ही की है, किन्तु उन नयों के आधार से विचारणीय विषयों की अधिकता आचार्य के ग्रन्थों में स्पष्ट है। उन विषयों में आत्मा आदि कुछ विषय तो ऐसे हैं, जो आगम में भी हैं, किन्तु आगमिक वर्णन में यह नहीं बताया गया, कि यह वचन अमुक नय का है । आचार्य के विवेचन के प्रकाश में यदि आगमों के उन वाक्यों का बोध किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है, कि आगम के वे वाक्य कौन से नय के आश्रय से प्रयुक्त हुए हैं । उक्त दो नयों की व्याख्या करते हुए प्राचार्य ने कहा हैववहारोऽभूवत्थो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धणयो।"
-समयसार १३ व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्ध अर्थात् निश्चय नय भूतार्थ है।
तात्पर्य इतना ही है, कि वस्तु के पारमार्थिक तात्त्विक शुद्ध स्वरूप का ग्रहण निश्चय नय से होता है और अशद्ध अपारमार्थिक या लौकिक स्वरूप का ग्रहण व्यवहार से होता है । वस्तुतः छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों के विषय में सांसारिक जीवों को भ्रम होता है। जीव संसारावस्था में प्रायः पुद्गल से भिन्न उपलब्ध नहीं होता है । अतएव साधारण लोग जीव में अनेक ऐसे धर्मों का अध्यास कर देते हैं, जो वस्तुतः उसके नहीं होते। इसी प्रकार पुद्गल के विषय में भी विपर्यास कर देते
१७४ नियमसार ८, १८६ ।
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