Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ २६८ भागम-युग का जन-वर्शन हैं। इसी विपर्यास की दृष्टि से व्यवहार को अभूतार्थग्राही कहा गया है और निश्चय को भूतार्थग्राही । परन्तु आचार्य इस बात को भी मानते हो हैं, कि विपर्यास भी निर्मूल नहीं है । जीव अनादि काल से मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीनों परिणामों से परिणत होता है। इन्हीं परिणामों के कारण यह संसार का सारा विपर्यास है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि हम संसार का अस्तित्व मानते हैं, तो व्यवहार नय के विषय का भी अस्तित्व मानना पड़ेगा । वस्तुतः निश्चय नय भी तभी तक एक स्वतन्त्र नय है, जब तक उसका प्रतिपक्षी व्यवहार विद्यमान है । यदि व्यवहार नय नहीं, तो निश्चय भी नहीं। यदि संसार नहीं तो मोक्ष भी नहीं । संसार एवं मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं, वैसे ही व्यवहार और निश्चय भी परस्पर सापेक्ष है । आचार्य कुन्दकुन्द ने परम तस्व का वर्णन करते हुए इन दोनों नयों की सापेक्षता को ध्यान में रख कर ही कह दिया है, कि वस्तुतः तत्व का वर्णन न निश्चय से हो सकता है, न व्यवहार से। क्योंकि ये दोनों नय अमर्यादित को, अवाच्य को, मर्यादित और वाच्य बनाकर वर्णन करते हैं । अतएव वस्तु का परम शुद्ध स्वरूप तो पक्षातिक्रान्त है । वह न व्यवहारग्राह्य है और न निश्चयग्राह्य । जैसे जीव को व्यवहार के आश्रय से बद्ध कहा जाता है, और निश्चय के आश्रय से अबद्ध कहा जाता है । स्पष्ट है, कि जीव में अबद्ध का व्यवहार भी बद्ध की अपेक्षा से हुआ है । अतएव आचार्य ने कह दिया, कि वस्तुतः जीव न बद्ध है और न अबद्ध, किन्तु पक्षातिक्रान्त है । यही समयसार है, यही परमात्मा है । व्यवहार नय के निराकरण १७५ समयसार ६६ । १७६ समयसार तात्पर्य० पृ० ६७ । . "कम्मं बद्धमबद्ध जीवे एवं तु जाण गयपक्वं । पक्क्षातिकतो पुण भण्णवि जो सो समयसारो॥" -समयसार १५२ "बोग्णवि यारण भणियं माणइ मवरं तु समयपरिबरो । णणयपक्वं गिण्हदि किंचि वि जयपक्सपरिहीणो ॥" -समय० १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384