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२७२ मागम-युग का जैन-दर्शन द्वात्रिंशिकाएँ देखी जाएँ, पद-पद पर सिद्धसेन की प्रतिभा का पाठक को साक्षात्कार होता है । जैन साहित्य की जो न्यूनता थी, उसी की पूर्ति की
ओर उनकी प्रतिभा का प्रयाण हुआ है । चर्वितचर्वण उन्होंने नहीं किया। टीकाएँ उन्होंने नहीं लिखीं, किन्तु समय की गति-विधि को देख कर जैन आगमिक साहित्य से ऊपर उठ कर तर्क-संगत अनेकान्तवाद के समर्थन में उन्होंने अपना बल लगाया। फलस्वरूप 'सन्मति-तक' जैसा शासन-प्रभावक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ। सन्मति तर्क में अनेकान्त-स्थापना :
'नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिग्नाग ने भारतीय दार्शनिक परम्परा को एक नयी गति प्रदान की है। नागार्जन ने तत्कालीन बौद्ध और बौद्धतर सभी दार्शनिकों के सामने अपने शून्यवाद को उपस्थित करके वस्तु को सापेक्ष सिद्ध किया। उनका कहना था, कि वस्तु न भाव रूप है, न अभाव-रूप, न भावाभाव-रूप, और न अनुभय-रूप । वस्तु को कैसा भी विशेषण देकर उसका रूप बताया नहीं जा सकता, वस्तु निःस्वभाव है, यही नागार्जुन का मन्तव्य था । असङ्ग और वसुबन्धु इन दोनों भाइयों ने वस्तु-मात्र को विज्ञान-रूप सिद्ध किया और बाह्य जड़ पदार्थों का अपलाप किया। वसुबन्धु के शिष्य दिग्नाग ने भी उनका समर्थन किया और समर्थन करने के लिए बौद्ध दृष्टि से नवीन प्रमाण शास्त्र की भी नींव रखी। इसी कारण से वह बौद्ध न्यायशास्त्र का पिता कहा जाता है। उसने प्रमाण-शास्त्र के बल पर सभी वस्तुओं की क्षणिकता के बौद्ध सिद्धान्त का भी समर्थन किया।
बौद्ध विद्वानों के विरुद्ध में भारतीय सभी दार्शनिकों ने अपनेअपने पक्ष की सिद्धि करने के लिए पूरा बल लगाया। नैयायिक वात्स्यायन ने नागार्जुन और अन्य दार्शनिकों का खण्डन करके आत्मा आदि प्रमेयों की भावरूपता और सभी का पार्थक्य सिद्ध किया । मीमांसक शबर ने विज्ञानवाद और शून्यवाद का निरास किया तथा वेदापौरुषेयता सिद्ध की। वात्स्यायन और शबर दोनों ने बौद्धों के 'सर्व क्षणिकम्' सिद्धान्त की आलोचना करके आत्मा आदि पदार्थों की नित्यता की रक्षा की। सांख्यों ने
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