Book Title: Agam Yugka Jaindarshan
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 299
________________ नागमोत्तर जन-दर्शन २७३ भी अपने पक्ष की रक्षा के लिए प्रयत्न किया । इन सभी को अकेले दिग्नाग ने उत्तर दे करके फिर विज्ञानवाद का समर्थन किया तथा बौद्ध-संमत सर्व वस्तुओं की क्षणिकता का सिद्धान्त स्थिर किया । ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर पांचवी शताब्दी तक की इस दार्शनिकवादों की पृष्ठभूमि को यदि ध्यान में रखें, तो प्रतीत होगा, कि जैन दार्शनिक सिद्धसेन का आविर्भाव यह एक आकस्मिक घटना नहीं, किन्तु जैन साहित्य के क्षेत्र में भी दिग्नाग के जैसे एक प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् की आवश्यकता ने ही प्रतिभा मूर्ति सिद्धसेन को उत्पन्न किया है । आगमगत अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का वर्णन पूर्व में हो चुका है । उससे पता चलता है, कि भगवान् महावीर का मानस अनेकान्तवादी था । आचार्यों ने भी अनेकान्तवाद को कैसे विकसित किया, यह भी मैंने बताया है । आचार्य सिद्धसेन ने जब अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के प्रकाश में उपर्युक्त दार्शनिकों के वाद-विवादों को देखा, तब उनकी प्रतिभा की स्फूर्ति हुई और उन्होंने अनेकान्तवाद की स्थापना का श्रेष्ठ अवसर समझकर सन्मति - तर्क नामक ग्रन्थ लिखा । वे प्रबल वादी तो थे ही । इस बात की साक्षी उनकी वादद्वात्रिंशिकाएं (७ और ८) दे रही हैं । अतएव उन्होंने जैन सिद्धान्तों को तार्किक भूमिका पर ले जा करके एक वादी की कुशलता से दार्शनिकों के बीच अनेकान्तवाद की स्थापना की । सिद्धसेन की विशेषता यह है, कि उन्होंने तत्कालीन नाना वादों को सन्मति तर्क में विभिन्न नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया | अद्वैतवादों को उन्होंने द्रव्यार्थिक नय के संग्रहनयरूप प्रभेद में समाविष्ट किया । क्षणिकवादी बौद्धों की दृष्टि को सिद्धसेन ने पर्यायनयान्तर्गत ऋजुसूत्रनयानुसारी बताया । सांख्य दृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक नय में किया और काणाददर्शन को उभयनयाश्रित सिद्ध किया । उनका तो यहाँ तक कहना है, कि संसार में जितने वचन प्रकार हो सकते हैं, जितने दर्शन एवं नाना मतवाद हो सकते हैं, उतने ही नयवाद हैं । उन सब का समागम ही अनेकान्तवाद है Jain Education International "जावइया वयणवहा तावइया चेव होन्ति जयवाया । जावइया णयवाया तावइया चैव परसमया ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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