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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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उद्देश्य तो है-आत्मा के निरुपाधिक शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन। किन्तु उसी के लिए अन्य तत्त्वों का भी पारमार्थिक रूप बताने का आचार्य ने प्रयत्न किया है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है, कि व्यवहार दृष्टि के आश्रय से यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञान आदि गुणों में पारस्परिक भेद का प्रतिपादन किया जाता है, फिर भी निश्चय दृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त है, कि जो ज्ञाता है, वही आत्मा है या
आत्मा ज्ञायक है, अन्य कुछ नहीं १४८ । इस प्रकार आचार्य की अभेदगामिनी दृष्टि ने आत्मा के सभी गुणों का अभेद ज्ञान-गुण में कर दिया है और अन्यत्र स्पष्टतया समर्थन भी किया है, कि संपूर्ण ज्ञान ही ऐकान्तिक सुख है १४९ । इतना ही नहीं, किन्तु द्रव्य और गुण में अर्थात् ज्ञान और ज्ञानी में भी कोई भेद नहीं है, ऐसा प्रतिपादन किया है१५० । उनका कहना है कि आत्मा कर्ता हो, ज्ञान करण हो, यह बात भी नहीं, किन्तु "जो जाणदि सो गाणं ण हवदि गाणेण जाणगो प्रादा।" प्रवचन० १.३५ । उन्होंने आत्मा को ही उपनिषद् की भाषा में सर्वस्व बताया है और उसी का अवलम्बन मुक्ति है, ऐसा प्रतिपादन किया है।५१ ।
आचार्य कुन्दकुन्द की अभेद दृष्टि को इतने से भी संतोष नहीं हुआ। उनके सामने विज्ञानाद्वैत तथा आत्माद्वैत का आदर्श भी था । विज्ञानाद्वैतवादियों का कहना है, कि ज्ञान में ज्ञानातिरिक्त बाह्य पदार्थों का प्रतिभास नहीं होता, स्व का ही प्रतिभास होता है । ब्रह्माद्वैत का भी यही अभिप्राय है, कि संसार में ब्रह्मातिरिक्त कुछ नहीं है । अतएव सभी प्रतिभासों में ब्रह्म हो प्रतिभासित होता है।
__ इन दोनों मतों के समन्वय की दृष्टि से आचार्य ने कह दिया, कि निश्चय दृष्टि से केवल ज्ञानी आत्मा को ही जानता है, बाह्य पदार्थों
१४ समयसार ६,७। १४९ प्रवचन० १.५६,६० । १५° समयसार १०,११, ४३३ पंचा० ४०,४६ देखो प्रस्तावना पृ०
१२१, १२२ । १५१ समयसार १६-२१ । नियमसार ६५-१००।
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