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मागमोत्तर जन-दर्शन
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अतएव मानना यह चाहिए, कि ज्ञान व्यवहार-नय से परप्रकाशक है, और दर्शन भी तथा आत्मा भी व्यवहार-नय से ही परप्रकाशक है, और दर्शन भी । (१६३)
किन्तु निश्चय-नय की अपेक्षा से ज्ञान स्व प्रकाशक है, और दर्शन भी तथा आत्मा स्वप्रकाशक है, और दर्शन भी है । (१६४)
प्रश्न-यदि निश्चय नय को ही स्वीकार किया जाए और कहा जाए कि केवल ज्ञानी आत्म-स्वरूप को ही जानता है, लोकालोक को नहीं तब क्या दोष है ? (१६५)
उत्तर-जो मूर्त और अमूर्त को, जीव और अजीव को, स्व और सभी को जानता है, उसके ज्ञान को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है और जो पूर्वोक्त सकल द्रव्यों को उनके नाना पर्यायों के साथ नहीं जानता, उसके ज्ञान को परोक्ष कहा जाता है। अतएव यदि एकान्त निश्चय-नय का आग्रह रखा जाए तो केवल ज्ञानी को प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु परोक्ष ज्ञान होता है, यह मानना पड़ेगा। (१६६-१६७)
प्रश्न-और यदि व्यवहार नय का ही आग्रह रख कर ऐसा कहा जाए कि केवल ज्ञानी लोकालोक को तो जानता है, किन्तु स्वद्रव्य आत्मा को नहीं जानता, तब क्या दोष होगा ? (१६८)
उत्तर-ज्ञान ही तो जीव का स्वरूप है । अतएव पर द्रव्य को जानने वाला ज्ञान स्वद्रव्य प्रात्मा को न जाने. यह कैसे संभव है और यदि ज्ञान स्वद्रव्य आत्मा को नहीं जानता है, ऐसा आग्रह हो, तब यह मानना पड़ेगा, कि ज्ञान जीव स्वरूप नहीं, किन्तु उससे भिन्न है । वस्तुतः देखा जाए, तो ज्ञान ही आत्मा है और प्रात्मा ही ज्ञान है । अतएव व्यवहार और निश्चय दोनों के समन्वय से यही कहना उचित है, कि ज्ञान स्वपरप्रकाशक है और दर्शन भी। (१६६-१७०) सम्यग्ज्ञान :
वाचक ने सम्यग्ज्ञान का अर्थ किया है-अव्यभिचारि, प्रशस्त और संगत । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्ज्ञान की जो व्याख्या की है,
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