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२३६ श्रागम-युग का जैन- दर्शन
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यही द्रव्य सत्ता एवं परमतत्त्व है । नाना देश और काल में इसी परमतत्त्व का विस्तार है । जिन्हें हम द्रव्य, गुण या पर्याय के नाम से जानते हैं । वस्तुतः द्रव्य के अभाव में गुण या पर्याय तो होते ही नहीं ३ । यही द्रव्य क्रमशः नाना गुणों में या पर्यायों में परिणत होता रहता है । अतएव वस्तुतः गुण और पर्याय द्रव्य से अनन्य है - द्रव्य रूप ही हैं६४ । अतः परमतत्त्व सत्ता को द्रव्यरूप ही मानना उचित है । आगमों में भी द्रव्य और गुण- पर्याय के अभेद का कथन मिलता है, किन्तु अभेद होते हुए भी भेद क्यों प्रतिभासित होता है ? इसका स्पष्टीकरण जिस ढंग से आचार्य कुन्दकुन्द ने किया, वह उनके दार्शनिक अध्यवसाय का फल है ।
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आचार्य कुन्दकुन्द ने अर्थ को परिणमनशील बताया है । परिणाम और अर्थ का तादात्म्य माना है। उनका कहना है, कि कोई भी परिणाम द्रव्य के बिना नहीं, और कोई द्रव्य परिणाम के बिना नहीं । जिस समय द्रव्य जिस परिणाम को प्राप्त करता है, उस समय वह द्रव्य तन्मय होता है । इस प्रकार द्रव्य और परिणाम का अविनाभाव बता कर दोनों का तादात्म्य सिद्ध किया है ।
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आचार्य कुन्दकुन्द ने परमतत्त्व सत्ता का स्वरूप बताया है कि( पंचा० ८ )
द्रव्य, गुण और पर्याय का सम्बन्ध :
संसार के सभी अर्थों का समावेश आचार्य कुन्दकुन्द के मत से
" सत्ता सव्वपयत्था सविस्सख्वा श्रणंतपज्जया । भंगुप्पादधुवत्ता सपडवक्खा हवदि एक्का ।"
६२ प्रवचन० २.१५ ।
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प्रवचन २.१८ ।
समयसार ३३६ ।
प्रवचन० २.११,१२ । पंचा० ६ ।
प्रवचन० १.१० ।
प्रवचन० १.८ ।
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