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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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द्रव्य, गुण और पर्याय में हो जाता है । इन तीनों का परस्पर सम्बन्ध क्या है ? वाचक ने कहा है, कि द्रव्य के या द्रव्य में गुणपर्याय होते हैं (तत्त्वार्थ भाष्य ५,३७) । अतएव प्रश्न होता है, कि यहाँ द्रव्य और गुणपर्याय का कुण्डबदरवत् आधाराधेय सम्बन्ध है, या दंड-दंडीवत् स्वस्वामिभाव सम्बन्ध है ? या वैशेषिकों के समान समवाय सम्बन्ध है ? वाचक ने इस विषय में स्पष्टीकरण नहीं किया।
आचार्य कुन्दकुन्द ने इसका स्पष्टीकरण करने के लिए प्रथम तो पृथक्त्व और अन्यत्व की व्याख्या की है--
"पविभत्तपदेसत्तं पुषत्तमिदि सासणं हि वीरस्स । अण्णत्तमतब्भावो ण तसवं होदि कथमेगं ॥"
-प्रवचन० २.१४ जिन दो वस्तुओं के प्रदेश भिन्न होते हैं, वे पृथक् कही जाती हैं। किन्तु जिनमें अतद्भाव होता है, अर्थात् वह यह नहीं है, ऐसा प्रत्यय होता है, वे अन्य कही जाती हैं।
द्रव्य, गुण और पर्याय में प्रदेश-भेद तो नहीं हैं । अतएव वे पृथक् नहीं कहे जा सकते, किन्तु अन्य तो कहे जा सकते हैं, क्योंकि 'जो द्रव्य है वह गुण नहीं' तथा 'जो गुण है वह द्रव्य नहीं' ऐसा प्रत्यय होता है६९ । इसी का विशेष स्पष्टीकरण उन्होंने यों किया है, कि यह कोई नियम नहीं है, कि जहाँ अत्यन्त भेद हो, वहीं अन्यत्व का व्यवहार हो।अभिन्न में भी व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय के कारण भेदज्ञान हो सकता है । और समर्थन किया है कि द्रव्य और गुण-पर्याय में भेद व्यवहार होने पर भी वस्तुतः भेद नहीं। दृष्टांत देकर इस बात को समझाया है कि स्वस्वामिभाव सम्बन्ध सम्बन्धियों के पृथक् होने पर भी हो सकता है और एक होने पर भी हो सकता है। जैसे धन और धनी में तथा ज्ञान और
६८ प्रवचन० १.८७। ६९ प्रवचन० २.१६ । ७० पंचास्तिकाय ५२॥
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