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भागमोत्तर जैन दर्शन
कर्तृत्व की व्यावहारिक व्याख्या लोक प्रसिद्ध भाषा प्रयोग की दृष्टि से होती है, इस बात को स्वीकार करके भी आचार्य ने बताया है कि नैश्चयिक या पारमार्थिक कर्तृत्व की व्याख्या दूसरी ही करना चाहिए । व्यवहार की भाषा में हम आत्मा को कर्म का भी कर्ता कह सकते हैं १११ किन्तु नैश्चयिक दृष्टि से किसी भी परिणाम या कार्य का कर्ता स्वद्रव्य ही है, पर द्रव्य नहीं ११२ । अतएव आत्मा को ज्ञान आदि स्वपरिणामों का ११3 ही कर्ता मानना चाहिए । आत्मेतर कर्मप्रादि यावत् कारणों को अपेक्षा कारण या निमित्त कहना चाहिए" ।
वस्तुतः : दार्शनिकों की दृष्टि से जो उपादान कारण है, उसी को आचार्य ने पारमार्थिक दृष्टि से कर्ता कहा है और अन्य कारणों को बौद्ध दर्शन प्रसिद्ध हेतु, निमित्त या प्रत्यय शब्द से कहा है !
जिस प्रकार जैनों को ईश्वरकर्तृ त्व मान्य नहीं है, ११७ उसी प्रकार सर्वथा कर्मकर्तृत्व भी मान्य नहीं है । आचार्य की दार्शनिक दृष्टि ने यह दोष देख लिया, कि यदि सर्वकर्तृत्व की जवाबदेही ईश्वर से छिनकर कर्म के ऊपर रखी जाए, तो पुरुष की स्वाधीनता खंडित हो जाती है । इतना ही नहीं, किन्तु ऐसा मानने पर जैन के कर्मकर्तृत्व में और सांख्यों
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प्रकृति कर्तृत्व में भेद भी नहीं रह जाता और आत्मा सर्वथा अकारकअकर्ता हो जाता है । ऐसी स्थिति में हिंसा या अब्रह्मचर्य का दोष आत्मा में न मानकर कर्म में ही मानना पड़ेगा ' । अतएव मानना यह चाहिए कि आत्मा के परिणामों का स्वयं आत्मा कर्ता है और कर्म अपेक्षा कारण है तथा कर्म के परिणामों में स्वयं कर्म कर्त्ता है और आत्मा अपेक्षा है११७ ।
१११ समयसार १०५, ११२-११५ ।
समयसार ११०,१११ ।
समयसार १०७५, १०६ ।
११४ समयसार ८६-८८, ३३६ ।
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११७ समयसार ३५०-३५२ । समयसार ३३६-३७४ । समयसार ८६-८८, ३३६ ।
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