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श्रागम-युग का जन-दर्शन
जब तक मोह के कारण से जीव परद्रव्यों को अपना समझ कर उनके परिणामों में निमित्त बनता है, तब तक संसार वृद्धि निश्चित है " | जब भेदज्ञान के द्वारा अनात्मा को पर समझता है, तब वह कर्म में निमित्त भी नहीं बनता और उसकी मुक्ति अवश्य होती है"
शुभ, अशुभ एवं शुद्ध श्रध्यवसाय :
सांख्यकारिका में कहा है कि धर्म - पुण्य से ऊर्ध्वगमन होता है, अधर्म - पाप से अधोगमन होता है, किन्तु ज्ञान से मुक्ति मिलती हैं |२| इसी बात को आचार्य ने जैन - परिभाषा का प्रयोग करके कहा है, कि आत्मा के तीन अध्यवसाय होते हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुभाध्यवसाय का फल स्वर्ग है, अशुभ का नरक आदि और शुद्ध का मुक्ति है ११ । इस मत की न्याय-वैशेषिक के साथ भी तुलना की जा सकती है । उनके मत से भी धर्म और अधर्म ये दोनों संसार के कारण हैं और धर्माधर्म से मुक्त शुद्ध चैतन्य होने पर ही मुक्तिलाभ होता है । भेद यही है, कि वे मुक्त आत्मा को शुद्ध रूप तो मानते हैं, किन्तु ज्ञानमय नहीं ।
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संसार - वर्णन :
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से यह जाना जाता है, कि वे सांख्य दर्शन से पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हैं । जब वे आत्मा के अकर्तत्व आदि का समर्थन करते हैं१२२ तब वह प्रभाव स्पष्ट दिखता है । इतना ही नहीं, किन्तु सांख्यों की ही परिभाषा का प्रयोग करके उन्होंने संसार वर्णन भी किया है । सांख्यों के अनुसार प्रकृति और पुरुष का बन्ध ही संसार है । जैनागमों में प्रकृतिबंध नामक बंध का एक प्रकार माना गया है । अतएव
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समयसार ७४-७५, ६६,४१७-४१६ ।
११९ वही ७६-७६, १००, १०४,३४३ ॥
१२० “धर्मेण गमन मूध्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्ग:"
सांख्यका० ४४
१२१ प्रवचन० १.६,११,१२,१३, २.८६ । समयसार १५५-१६१ ।
समयसार ८०,८१३४८, ।
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