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पागम युग का जैन-दर्शन
"रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति ।" उत्तरा० ३२.७ ।
जैन कर्मशास्त्र के अनुसार मोहनीय कर्म के दो भेद हैं दर्शनमोह और चारित्र मोह । दूसरे दार्शनिकों ने जिसे अविद्या, अज्ञान, तमस्, मोह या मिथ्यात्व कहा है, वही जैन संमत दर्शनमोह है और दूसरों के राग और द्वेष का अन्तर्भाव जैन-संमत चारित्र मोह में है। जैन संमत ज्ञानावरणीय कर्म से जन्य अज्ञान में और दर्शनान्तर संमत अविद्या मोह या मिथ्याज्ञान में अत्यन्त वैलक्षण्य है, इसका ध्यान रखना चाहिए । क्योंकि अविद्या से उनका तात्पर्य है, जीव को विपथगामी करने वाला मिथ्यात्व या मोह, किन्तु ज्ञानवरणीयजन्य अज्ञान में ज्ञान का अभाव मात्र विवक्षित है । अर्थात् दर्शनान्तरीय-अविद्या कदाग्रह का कारण होती है, अनात्मा में आत्मा के अध्यास का कारण बनती है, जब कि जैन-संमत उक्त अज्ञान जानने की अशक्ति को सूचित करता है । एक-अविद्या के कारण संसार बढ़ता ही है, जब कि दूसरा--अज्ञान संसार को बढ़ाता ही है, ऐसा नियम नहीं है।
नीचे दोषों का तुलनात्मक कोष्ठक दिया जाता है-- जैन नैयायिक सांख्य योग बौद्ध मोहनीय दोष गुण विपर्यय क्लेश अकुशलहेतु १ दर्शन मोह मोह तमोगुण तमस् अविद्या मोह
मोह अस्मिता २ चारित्र मोह माया। लामा राग राग सत्वगुण महामोह
राग क्रोध) द्वेष रजोगुण तामिस्र . द्वेष द्वेष
अन्धतामिस्र अभिनिवेश
राग
मान
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