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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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जीव को नित्य भी कहा है। और अनित्य भी, जीव को अमूर्त कह कर भी उसके नारक आदि अनेक मूर्त भेद बताए हैं। इस प्रकार जीव के शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपों का वर्णन आगमों में विस्तार से है । कहीं-कहीं द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयों का आश्रय लेकर विरोध का समन्वय भी किया गया है। वाचक ने भी जीव के वर्णन में सकर्मक और अकर्मक जीव का वर्णन मात्र कर दिया है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के आगमोक्त वर्णन को समझने की चाबी बता दी है, जिसका उपयोग करके आगम के प्रत्येक वर्णन को हम समझ सकते हैं कि आत्मा के विषय में आगम में जो अमुक बात कही गई वह किस दृष्टि से है। जीव का जो शुद्ध रूप आचार्य ने बताया है, वह आगम काल में अज्ञात नहीं था । शुद्ध और अशुद्ध स्वरूप के विषय में आगम काल के आचार्यों को कोई भ्रम नहीं था। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द के आत्मनिरूपण की जो विशेषता है, वह यह है, कि इन्होंने स्वसामयिक दार्शनिकों को प्रसिद्ध निरूपण शैली को जैन आत्मनिरूपण में अपनाया है । दूसरों के मन्तव्यों को, दूसरों की परिभाषाओं को अपने ढंग से अपनाकर या खण्डन करके जैन मन्तव्य को दार्शनिक रूप देने का प्रबल प्रयत्न किया है ।
औपनिषद दर्शन, विज्ञानवाद और शून्यवाद में वस्तु का निरूपण दो दृष्टिओं से होने लगा था। एक परमार्थ-दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि । तत्त्व का एक रूप पारमार्थिक और दूसरा सांवृतिक वर्णित है । एक भूतार्थ है तो दूसरा अभूतार्थ । एक अलौकिक है, तो दूसरा लौकिक । एक शुद्ध है, तो दूसरा अशुद्ध । एक सूक्ष्म है, तो दूसरा स्थूल । जैन आगम में जैसा हमने पहले देखा व्यवहार और निश्चय ये दो नय. या दृष्टियाँ क्रमशः स्थूल-लौकिक और सूक्ष्म तत्त्वग्राही मानी जाती रही हैं।
____ आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मनिरूपण उन्हीं दो दृष्टियों का आश्रय लेकर किया है । आत्मा के पारमार्थिक शुद्ध रूप का वर्णन निश्चय नय के आश्रय से और अशुद्ध या लौकिक-स्थूल आत्मा का वर्णन व्यवहार नय के आश्रय से उन्होंने किया है ।
९७ समय० ६ से, ३१ से. ६१ से। पंचा० १३४ । नियम ३ से । भावप्रा० ६४, १४६ । प्रवचन० २.२,८०,१००।
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