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आगम-युग का जैन-दर्शन
बहिरात्मा, अन्तरात्मा, एवं परमार
____ माण्डूक्योपनिषद में आत्मा को चार प्रकार का माना है-अन्तः प्रज्ञ, बहिष्प्रज्ञ, उभयप्रज्ञ और अवाच्य । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन प्रकार बतलाए हैं।९८ बाह्य पदार्थों में जो आसक्त है, इन्द्रियों के द्वारा जो अपने शुद्ध स्वरूप से भ्रष्ट हुआ है, तथा जिसे देह और आत्मा का भेद ज्ञान नहीं, जो शरीर को ही आत्मा समझता है, ऐसा विपथगामी मूढ़ात्मा बहिरात्मा है । सांख्यों के प्राकृतिक, वैकृतिक और दाक्षणिक बन्ध का समावेश इसी बाह्यात्मा में हो जाता है।९९
जिसे भेदज्ञान तो हो गया है, पर कर्मवश सशरीर है और जो कर्मों के नाश में प्रयत्नशील है. ऐसा मोक्षमार्गारूढ़ अन्तरात्मा है। शरीर होते हुए भी वह समझता है, कि यह मेरा नहीं, मैं तो इससे भिन्न हूँ । ध्यान के बल से कर्म-क्षय करके प्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप को जब प्राप्त करता है, तब वह परमात्मा है । परमात्मवर्णन में समन्वय :
परमात्म-वर्णन में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी समन्वय शक्ति का परिचय दिया है । अपने काल में स्वयंभू की प्रतिष्ठा को देखकर स्वयंभू शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए जनसंमत अर्थ में उन्होंने कर दिया है। इतना ही नहीं, किन्तु कर्म-विमुक्त शुद्ध आत्मा के लिए शिव, परमेष्ठिन्, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध एवं परमात्मा'०१ जैसे शब्दों का प्रयोग करके यह सूचित किया है, कि तत्वतः देखा जाए, तो परमात्मा का रूप एक ही है, नाम भले ही नाना हों ।
१८ मोक्षप्रा० ४ से । नियमसार १४६ से । ९९ सांख्यत० ४४।
"प्रवचन०१.१६ । १.१ "गाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्ड चउमुहो बुद्धो।
अप्पो विय परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ॥" भावप्रा० १४६ For Private & Personal Use Only
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