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२४६ प्रागम-युग का जैन-दर्शन
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दार्शनिकों की परिभाषा में समझाने का प्रयत्न भी किया है । परमाणु मूल गुणों में शब्द को स्थान नहीं है, तब पुद्गल शब्द रूप कैसे और कब होता है, ( पञ्चा० ८६ ) में इस बात का भी स्पष्टीकरण किया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के परमाणु लक्षण में निम्न बातें हैं१. सभी स्कन्धों का अंतिम भाग परमाणु है । २. परमाणु शाश्वत है ।
३. अशब्द है, फिर भी शब्द का कारण है । ४. अविभाज्य एवं एक है ।
५. मूर्त है ।
६. चतुर्धातु का कारण है और कार्य भी है । ७. परिणामी है ।
८. प्रदेशभेद न होने पर भी वह वर्णआदि को अवकाश देता है । ९. स्कन्धों का कर्ता और स्कंधान्तर से स्कन्ध का भेदक है ।
१०. काल और संख्या का प्रविभक्ता - व्यवहारनियामक भी परम है ।
११. एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्शयुक्त है ।
१२. भिन्न होकर भी स्कन्ध का घटक है ।
१३. आत्मप्रादि है, आत्ममध्य है, प्रात्मनन्त है १४. इन्द्रियाग्राह्य है ।
आचार्य ने 'धातु चदुक्कस्स कारणं' (पचा० ८५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातुओं का मूल कारण परमाणु है यह कह करके यह साफ कर दिया है, कि जैसा वैशेषिक या चार्वाक मानते हैं, वे धातुएँ मूल तत्त्व नहीं, किन्तु सभी का मूल एक लक्षण परमाणु ही है । आत्म-निरूपण :
निश्चय और व्यवहार - जैन आगमों में आत्माको शरीर से भिन्न भी कहा है और अभिन्न भी । जीव का ज्ञान परिणाम भी माना है और गत्यादि भी, जीव को कृष्णवर्ण भी कहा है और अवर्ण भी कहा है और
पंचा० ८४,८५,८७,८८ | नियमसार २५-२७ ।
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