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२४४ श्रागम-युग का जैन दर्शन
किया जाए, तो वह मूर्त कहा जा सकता है । इस प्रकार लक्षण की निर्दोषता भी घटाई जा सकती है ।
पुद्गल द्रव्य की व्याख्या :
आचार्य ने व्यवहार और निश्चय नय से पुद्गल द्रव्य की जो व्याख्या की है, वह अपूर्व है । उनका कहना है कि निश्चय नय की अपेक्षा से परमाणु ही पुद्गल - द्रव्य कहा जाना चाहिए और व्यवहार नय की अपेक्षा से स्कन्ध को पुद्गल कहना चाहिए" ।
पुद्गल द्रव्य की जब यह व्याख्या की, तब पुद्गल के गुण और पर्यायों में भी आचार्य को स्वभाव और विभाव ऐसे दो भेद करना आवश्यक हुआ । अतएव उन्होंने कहा है, कि परमाणु के गुण स्वाभाविक हैं और स्कन्ध के गुण वैभाविक हैं । इसी प्रकार परमाणु का अन्य निरपेक्ष परिणमन स्वभाव पर्याय है और परमाणु का स्कन्ध रूप परिणमन अन्य सापेक्ष होने से विभाव पर्याय है" ।
प्रस्तुत में अन्य निरपेक्ष परिणमन को जो स्वभाव - पर्याय कहा गया है, उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए, कि वह परिणमन काल भिन्न निमित्त कारण की अपेक्षा नहीं रखता । क्योंकि स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द के मत से भी सभी प्रकार के परिणामों में काल कारण होता ही है ।
आगे के दार्शनिकों ने यह सिद्ध किया है, कि किसी भी कार्य की निष्पत्ति सामग्री से होती है, किसी एक कारण से नहीं । इसे ध्यान में रख कर आचार्य कुन्दकुन्द के उक्त शब्दों का अर्थ करना चाहिए ।
पुद्गल स्कन्ध :
आचार्य कुन्दकुन्द ने स्कन्ध के छह भेद बताए हैं, जो वाचक के तत्त्वार्थ में तथा आगमों में उस रूप में देखे नहीं जाते । वे छह भेद ये हैं
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नियमसार २६ ।
९५ नियमसार २७, २८ ॥
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