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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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प्रश्न होता है कि उत्पादन आदि का परस्पर और द्रव्य गुण-पर्याय के साथ कैसा सम्बन्ध है ?
आचार्य कुन्दकुन्द ने सष्ट किया है, कि उत्पनि नाश के बिना नहों ओर नारा उत्पत्ति के बिना नहीं। जब तक किसी एक पर्याय का नाश नहीं, दूसरे पर्याय की उत्पत्ति सम्भव नहीं और जब तक किसी की उत्पत्ति नहीं, दूसरे का नाश भी सम्भव नहीं । इस प्रकार उत्पत्ति और नाश का परस्पर अविनाभाव आचार्य ने बताया है।
उत्पत्ति और नाश के परस्पर अविनाभाव का समर्थन करके ही आचार्यने सन्तोष नहीं किया, किन्तु दार्शनिकों में सत्कार्यवाद-असत्कार्यवाद को लेकर जो विवाद था, उसे सुलझाने की दृष्टि से कहा है, कि ये उत्पाद और व्यय तभी घट सकते हैं, जब कोई न कोई ध्रुव अर्थ माना जाए। इस प्रकार उत्पाद आदि तीनों का अविनाभाव सम्बन्ध जब सिद्ध हुआ, तब अभेद दृष्टि का अवलम्बन लेकर प्राचार्य ने कह दिया, कि एक ही समय में एक ही द्रव्य में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का समवाय होने से द्रव्य ही उत्पादादित्रय रूप है ।
आचार्य ने उत्पाद आदि त्रय और द्रव्य गुण-पर्याय का सम्बन्ध बताते हुए यह कहा है, कि उत्पाद और विनाश ये द्रव्य के नहीं होते, किन्तु गुण-पर्याय के होते हैं । आचार्य का यह कथन द्रव्य और गुणपर्याय के व्यवहार नयाश्रित भेद के आश्रय से है, इतना ही नहीं, किन्तु सांख्य-संमत आत्मा को कूटस्थता तथा नैयायिक-वैशेषिक संमत आत्म-द्रव्य की नित्यता का भी समन्वय करने का प्रयत्न इस कथन में है । बुद्धिप्रतिबिम्ब या गुणान्तरोत्पत्ति के होते हुए भी जैसे आत्मा को उक्त दार्शनिकों ने उत्पन्न या विनष्ट नहीं माना है, वैसे प्रस्तुत में आचार्य ने द्रव्य को भी
७८ प्रवचन० २.८। १९ प्रवचन० २.८ । ८० प्रवचन० २.१० । ८१ पंचा० ११,१५॥
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