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प्रागमोत्तर जैन-दर्शन
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देखा जाए, तो भाव-वस्तु का कभी नाश नहीं होता, और अभाव की उत्पत्ति नहीं होती । अर्थात् असत् ऐसा कोई उत्पन्न नहीं होता । द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता और जो कुछ उत्पन्न होता है वह द्रव्यात्मक, होने से पहले सर्वथा असत् था, यह नहीं कहा जा सकता । जैसे जीव द्रव्य नाना पर्यायों को धारण करता है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह नष्ट हुआ, या नया उत्पन्न हुआ। अतएव द्रव्यदृष्टि से यही मानना उचित है, कि-"एवं सदो विणासो असदो जीवस्स नत्थि उप्पादो।" पंचा० १६।
इस प्रकार द्रव्यदृष्टि से सत्कार्यवाद का समर्थन करके पर्याय-नय के आश्रय से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने असत्कार्यवाद का भी समर्थन किया कि “एवं सदो विरणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो ॥" पंचा० ६० । गुण और पर्यायों में उत्पाद और व्यय होते हैं । अतएव यह मानना पड़ेगा, कि पर्याय-दृष्टि से सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति होती है। जीव का देव पर्याय जो पहले नहीं था अर्थात् असत् था, वह उत्पन्न होता है, और सत्-विद्यमान ऐसा मनुष्य पर्याय नष्ट भी होता है ।
प्राचार्य का कहना है कि यद्यपि ये दोनों वाद अन्योन्य विरुद्ध दिखाई देते हैं, किन्तु नयों के आश्रय से वस्तुतः कोई विरोध नहीं ६ । द्रव्यों का भेद-अभेद :
वाचक ने यह समाधान तो किया कि धर्मादि अमूर्त हैं। अतएव उन सभी की एकत्र वृत्ति हो सकती है। किन्तु एक दूसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि यदि इन सभी की वृत्ति एकत्र है, वे सभी परस्पर प्रविष्ट हैं, तब उन सभी की एकता क्यों नहीं मानी जाए? इस प्रश्न का समाधान आचार्य कुन्दकुन्द ने किया, कि छहों द्रव्य अन्योन्य में प्रविष्ट हैं, एक दूसरे को अवकाश भी देते हैं, इनका नित्य सम्मेलन भी है, फिर भी उन सभी में एकता नहीं हो सकती, क्योंकि वे अपने स्वभाव का
८५ "गुणपज्जएसु भावा उप्पादवये पकुवन्ति ।" १५ । ८६ "इवि जिणवरेहि भणिदं अण्णोग्णविरुद्धमविरुद्ध ॥" पंचा० ६० । पंचा०
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